श्रीमद्भगवद्गीता
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस:। कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।कथं न ज्ञेयस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जर्नादन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोभिभवत्युत।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:। स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय! जायते वर्णसंकर:।
कुल के नाश से सनातन कुल—धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण संकर उत्पन्न होता है।
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:।
दोषैरेतै: कुलध्नानां वर्णसंकरकारकै:। उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुलको नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल—धर्म और जाति—धर्म नष्ट हो जाते हैं।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरकेनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:।
हे जनार्दन! जिनका कुल—धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्विचत काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हां! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं।
क्रमश:
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जर्नादन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोभिभवत्युत।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:। स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णेय! जायते वर्णसंकर:।
कुल के नाश से सनातन कुल—धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वाष्र्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण संकर उत्पन्न होता है।
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:।
दोषैरेतै: कुलध्नानां वर्णसंकरकारकै:। उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुलको नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल—धर्म और जाति—धर्म नष्ट हो जाते हैं।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरकेनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:।
हे जनार्दन! जिनका कुल—धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्विचत काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हां! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं।
क्रमश:
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