महर्षि कणादि ने राजा को दी सीख

बोधकथा : एक महर्षि थे, किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो जो अन्न, कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से महर्षि का नाम पड़ा कणादि। राजा को महर्षि कणादि के कष्ट का पता चला। राजा ने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा, मैं सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरुरत है। इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया। अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सब कुछ है। राजा ने फिर सोचा कि जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहा है कि उसके पास सब कुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, आपने भूल की है महाराज। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए। कणादि ने राजा और रानी से कहा कि गरीब कौन है? मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं। इसके अलावा ऋषि कणादि ने अणु विज्ञान में काफी शोध किये थे। एक श्लोक—
वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते। वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु। वेगः संयोगविशेषविरोधी॥
अर्थात्‌ वेग या मोशन पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।

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