श्रीमद्भभगवद्गीता
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय:। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुन: सड़्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:।
।।ऊं तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगश्स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेअर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोअध्याय:।।
यदि मुझे शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा। संजय बोले— रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।
ऊं श्री परमात्मने नम:
अथ द्वितीयोअध्याय:संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन
संजय बोले— उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा। श्री भगवान बोले— हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ, क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैत्त्वरय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परन्तम।अर्जुन उवाच
कथं भीष्महं सड़्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभि: प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।
इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमे यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा। अर्जुन बोले— हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा। क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।
क्रमश:
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुन: सड़्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:।
।।ऊं तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगश्स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेअर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोअध्याय:।।
यदि मुझे शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा। संजय बोले— रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।
ऊं श्री परमात्मने नम:
अथ द्वितीयोअध्याय:संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वग्र्यमकीर्तिकरमर्जुन
संजय बोले— उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा। श्री भगवान बोले— हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ, क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैत्त्वरय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परन्तम।अर्जुन उवाच
कथं भीष्महं सड़्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभि: प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।
इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमे यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा। अर्जुन बोले— हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा। क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।
क्रमश:
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