श्रीमद्भगवद्गीता

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:। अजो नित्य: शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है। यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भ यह नहीं मारा जाता।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि। तथा शरीरराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।
नैनं दिन्दन्ति शास्त्राणि नैनं दहति पावक:। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।
अच्छेद्योअयमदाह्योअयमक्लेद्योशोष्य एव च। नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोये सनातन:।
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने इवाला और सनातन है।
अव्यक्तोयमचिन्त्योअयमविकार्योयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है।
क्रमश:

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