श्रीमद्भगवद्गीता
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदहृयते। न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च में मन:।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानिक केशव। न च श्रेयोनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन—समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।
न काड़ंक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।
योषामर्थे काड्ंक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च। त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।
हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूं और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है। हमें जिनके लिये राज्य, भोग सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्यामला: सम्बन्धिनस्तथा।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नोतोअपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।
गुरुजन, ताऊ—चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं। हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनोें लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है।
निहत्य धार्ताराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन:।
तस्मान्नर्हा वयं हन्तुं धार्ताराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव।
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी। इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।
क्रमश:
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानिक केशव। न च श्रेयोनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन—समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता।
न काड़ंक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।
योषामर्थे काड्ंक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च। त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।
हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूं और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है। हमें जिनके लिये राज्य, भोग सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्यामला: सम्बन्धिनस्तथा।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नोतोअपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते।
गुरुजन, ताऊ—चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं। हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनोें लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है।
निहत्य धार्ताराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन:।
तस्मान्नर्हा वयं हन्तुं धार्ताराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव।
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी। इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं, क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।
क्रमश:
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