श्रीमद्भगवद्गगीता

यावदेतान्निरीक्षेहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।
योत्स्यमानानवेक्षेहं य एतेत्र समागता: । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षव:।
और जब तक कि मैं युद्धक्षेत्रे में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन—किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये। दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो—जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूंगा।
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।
भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीखिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरुनिति।

संजय बोले—हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देखो।
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितृनथ पितामहान् । आचार्यन्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रानसखींस्तथा।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि । तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

इसके बाद पृथापुत्र उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ, चाचों को, दारों, परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा। उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते।
अर्जुन बोले— हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है।
क्रमश:

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