संदेश

कथा लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बचपन से ही बाबा भोलेनाथ की अनन्य भक्त थीं माता पार्वती

चित्र
  कथा। पर्वतराज हिमालय की घोर तपस्या के बाद माता जगदम्बा प्रकट हुईं और उन्हें बेटी के रूप में उनके घर में अवतरित होने का वरदान दिया। इसके बाद माता पार्वती हिमालय के घर अवतरित हुईं। बेटी के बड़ी होने पर पर्वतराज को बेटी की शादी की चिंता सताने लगी। माता पार्वती बचपन से ही बाबा भोलेनाथ की अनन्य भक्त थीं। एक दिन पर्वतराज के घर महर्षि नारद पधारे और उन्होंने भगवान भोलेनाथ के साथ पार्वती के विवाह का संयोग बताया। नंदी पर सवार भोलेनाथ जब भूत, पिशाचों के साथ बरात लेकर पहुंचे तो उसे देखकर पर्वतराज और उनके परिजन अचम्भित हो गए, लेकिन माता पार्वती ने खुशी से भोलेनाथ को पति के रूप में स्वीकार किया।

ऋष्यश्रृंग को जंगल से बाहर निकालने के लिये देवदासियों ने रची साजिश

चित्र
कथा। पुराणों के अनुसार विभांडक ऋषि कश्यप ऋषि के पुत्र व ऋष्यश्रृंग के पिता थे। विभांडक ऋषि के कठोर तप से देवता कांप उठे थे और उनकी समाधि तोड़ने और ध्यान भटकाने के लिए उन्होंने स्वर्ग से उर्वशी को उन्हें मोहित करने के लिए भेजा। अप्सरा उर्वशी के आकर्षक स्वरूप के कारण विभांडक ऋषि की तपस्या टूट गई। दोनों के संसर्ग से ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ। पुत्र को जन्म देते ही उर्वशी का काम धरती पर समाप्त हो गया और वह अपने पुत्र को विभांडक ऋषि के पास छोड़कर वापस स्वर्ग चली गईं। अप्सरा उर्वशी के छल से विभांडक ऋषि बहुत आहत हुए और उन्होंने नारी जाति को ही इसके लिए दोषी ठहराना शुरू कर दिया। अपने पुत्र को लेकर विभांडक ऋषि एक जंगल में चले गए और उन्होंने प्रण किया कि वह अपने पुत्र पर किसी भी स्त्री की छाया तक नहीं पड़ने देंगे। जिस जंगल में विभांडक ऋषि तप करने गए थे वह जंगल अंगदेश की सीमा से लगकर था। विभांडक ऋषि के घोर तप और क्रोध के चलते अंगदेश में अकाल के बादल छा गए, लोग भूख से बिलखने लगे। इस समस्या के समाधान के लिए राजा रोमपाद ने अपने मंत्रियों, ऋषि, मुनियों को बुलाया। ऋषियों ने राजा से कहा कि यह सब विभांडक ऋषि ...

राजा पृथु की वजह से खूब अपमानित हुआ लुटेरा बख्तियार खिलजी

चित्र
"बख्तियार खिलज़ी तू ज्ञान के मंदिर नालंदा को जलाकर कामरूप (असम) की धरती पर आया है, अगर तू और तेरा एक भी सिपाही ब्रह्मपुत्र को पार कर सका तो मां चंडी (कामातेश्वरी) की सौगंध मैं जीते-जी अग्नि समाधि ले लूंगा : राजा पृथु" कथा। आजादी के बाद इतिहास में बख्तियार खिलजी का नाम दूसरे प्रसंगों में प्रमुखता से लिया जाता है, लेकिन राज पृथु का जिक्र कम देखने व सुनने को मिलता है। यह भी विडम्बना है कि इतिहासकारों ने पृथ्वीराज को हीरो बना दिया, जिसे मोहम्मद गोरी ने हराया था, लेकिन राजा पृथु का भारतीय इतिहास में कोई नाम नहीं जिसने गोरी सेना को खदेड़ा था। मालूम हो कि इस समय भारत सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है। जिसका उद्देश्य ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों के नाम सामने लाना है, जिसे इतिहास में भुला दिया गया, जिनका कोई जिक्र नहीं। इसी संदर्भ में यह भी है कि राजा पृथु की तरह एक दो नहीं, सैकड़ों नाम हैं जिन्हें आज भारत के इतिहास में सम्मान के साथ दर्ज होने चाहिए थे लेकिन पृथु का नाम असम से बाहर शायद ही किसी को मालूम हो। 1206 ई. में मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने बौद्ध मठों के खजाने को लूटने और दक्ष...

ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के पास थी देवताओं की दी हुई मायावी गाय कामधेनु

चित्र
कथा। ऋषि वशिष्ठ राजा दशरथ के कुलगुरु थे। राजा दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय और कामधेनु की नंदिनी नाम की बेटी थी, दोनों ही मायावी थीं। कामधेनु और नंदिनी ऋषि वशिष्ठ को सब कुछ दे सकती थीं। ऋषि वशिष्ठ शांति प्रिय, महान और परमज्ञानी थे। ऋषि वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुल की स्थापना की थी। गुरुकुल में हजारों राजकुमार और अन्य सामान्य छात्र गुरु वशिष्ठ से शिक्षा लेते थे, यहाँ पर महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती विद्यार्थियों को शिक्षा देते थे, विद्यार्थी गुरुकुल में ही रहते थे, ऋषि वशिष्ठ गुरुकुल के प्राचार्य थे। गुरुकुल में वे शिष्यों को 20 से अधिक कलाओं का ज्ञान देते थे, ऋषि वशिष्ठ के पास पूरे ब्रह्माण्ड और भगवानों से जुड़ा सारा ज्ञान था, उनके लिखे कई श्लोक और अध्याय वेदों में आज भी है। ब्रह्मऋषि वशिष्ठ और राजा कौशिक यानि विश्वामित्र की अद्भुत कथा आज भी प्रवलित है। महर्षि विश्वामित्र (राजा कौशिक) एक बार ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के आश्रम आये, उन्होंने कामधेनु की माया देखी वे कामधेनु से बहुत प्रभावित हु...

सर्वस्व त्याग करने वाले ऋषि दधीचि

चित्र
कथा। प्राचीन काल में वृत्रासुर नाम का एक दैत्य बडा ही उन्मत्त हो गया था। अति बलवान होने के कारण देवताओं को उसे हराना कठिन हो गया, उसके विनाश के लिये भगवान विष्णु ने सुझाया कि दधीचि ऋषि की अस्थियों से बज्र बनायें, उससे वृत्रासुर का नाश हो सकता है। दधीचि ऋषि अति दयालु एवं सबकी सहायता करने वाले थे। इंद्रदेव दधीचि ऋषि के पास गए और इंद्रदेव ने कहा कि मैं आपके पास याचक बनकर आया हूं। दैत्य वृत्रासुर का नाश करने के लिए एक बज्र बनाना है। इसके लिए आपकी अस्थियां चाहिए। क्षण भर भी विचार न करते हुए दधीचि ऋषि ने कहा, ‘मैं प्राणत्याग कर अपनी देह ही आपको अर्पित करता हूं। फिर आप देह का जो चाहें कर सकते हैं। दधीचि ऋषि ने योगबल से प्राणत्याग किया। फिर उनकी देह की अस्थियों से षट्कोनी बज्र बनाकर इंद्रदेव को दिया गया। इसके बाद वृत्तासुर का अंत किया गया। हमारे ऋषि, मुनि इसलिये महान थे कि समाजहित में सर्वस्व त्याग देते थे। दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र...

राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की कहानी

चित्र
  कथा। रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा हुए। उनकी दो रानियां थीं- केशिनी और सुमति। लम्बे समय तक संतान जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने लगे। तब महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा। कालांतर में सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरक्षित रखा। समय आने पर उन मटकों से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया। देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज...

कैसे हुआ राजा पृथु का जन्म

चित्र
कथा। पुराणों के अनुसार पृथु एक सूर्यवंशी राजा थे, जो वेन के पुत्र थे। स्वयंभुव मनु के वंशज राजा अंग का विवाह सुनिथा नामक स्त्री से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। वह पूरी धरती का एकमात्र राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये। तब ऋषियों ने मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला, लेकिन सुनिथा ने अपने पुत्र का शव संभाल कर रखा। राजा के अभाव में पृथ्वी पर पाप कर्म बढऩे लगे। तब ब्राह्मणों ने मृत राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम पृथु तथा स्त्री का नाम अर्चि हुआ। अर्चि पृथु की पत्नी हुई। पृथु पूरी धरती के एकमात्र राजा हुए। महाराज पृथु ने ही पृथ्वी को समतल किया जिससे वह उपज के योग्य हो पायी। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था। पृथु को भगवान विष्णु का अंशावतार माना गया है तो वहीं अर्ची को माता महालक्ष्मी का अंशावतार माना गया है। महाराज पृथु अत्यन्त लोकहितकारी थे। उन्होंने 99 अश्वमेध यज्ञ किये थे। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने अनेक वेश धारण कर अनेक बार घोड़ा चुराया, परन्तु महाराज पृथु के पुत्र इन्द्र...

राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था विश्‍व में सबसे पहले 1700 मील की सबसे लम्बी सड़क

चित्र
कथा। उज्जैन यानि कि अवंतिका के महान सम्राट विक्रमादित्य ने तिब्बत, चीन, फारस, तुर्क और अरब के कई क्षेत्रों पर शासन किया था। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक उनका परचम लहराता था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'शायर उर ओकुल' में किया है। यही वजह है कि उन्हें चक्रवर्ती सम्राट महान विक्रमादित्य कहा जाता है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य भी चक्रवर्ती सम्राट थे। उज्जैन का प्राचीन नाम अवंतिका है। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। विक्रम वेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई हैं। सम्राट विक्रमादित्य ने ही 57 ईसा पूर्व अपने नाम से विक्रम संवत चलाया था। उन्होंने शकों पर विजय की याद में यह संवत चलाया था। उनके ही नाम से वर्तमान में भारत में विक्रम संवत प्रचलित है। कहा जाता है कि मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था। भर्तृहरि के शासन में शकों का आक्रमण बढ़ गया था। भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो विक्रम सेना ने शासन संभाला और उन्होंने ईसा पूर्व 57-58 में सबसे पहले...

बड़ी ही मार्मिक है नर्मदा नदी की प्रेम कथा, आखिर क्यों विपरीत दिशा में बहती हैं!

चित्र
कथा। अपने देश में नदियों को जीवनदायिनी कहा गया है, नदी पूजनीय है। वैसे तो मौजूदा दौर में गंगा को अधिक महत्व दिया गया है, लेकिन नर्मदा नदी की महिमा अभी कम ही लोग जान पाये हैं, नर्मदा की पवित्रता और शोणभद्र के विरह में कैसे विपरीत दिशा में चली जाती हैं, यह निहायत ही हृदय विदारक है। इसीलिये नमामि देवी नर्मदे! नर्मदा घाटी की सभ्यता एशिया महाद्वीप की प्राचीनतम सभ्यताओ में से एक और भारतीय उपमहाद्वीप की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता का केंद्र रही हैं। यह नदी समुद्र में मिलने से पूर्व 1312 किलोमीटर लम्बे रास्ते में मध्यप्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र के क्षेत्र से 95 हजार 726 वर्ग किलोमीटर का पानी बहा ले जाती हैं। नर्मदा की सहायक नदी की संख्या 41 है। 22 बायें किनारे पर और 19 दायें किनारे पर मिलती हैं। नर्मदा, मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। मैकल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। नर्मदा की लम्बाई प्रायः 1312 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में समा जाती हैं। माना जाता है कि नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के...

रोमांचित कर देने वाली है ऋषि श्रृंगी की कथा

चित्र
कथा : प्राचीन वैदिक ॠषियों में प्रमुख ॠषि हैं कश्यप, जो ब्रह्मपुत्र मरीचि के पुत्र बताये गये हैं और मरीचि को सबसे प्राचीन ऋषि माना गया है। कश्यप ऋषि को धार्मिक व रहस्यात्मक चरित्र वाला बताया गया है। श्रृंगी ऋषि या ऋष्यशृंग वाल्मीकि रामायण में एक पात्र हैं, जिन्होंने राजा दशरथ के पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराये थे। शास्त्रों में श्रृंगी ऋषि को विभाण्डक ऋषि के पुत्र और कश्यप ऋषि के पौत्र बताये गये हैं। श्रृंगी के माथे पर सींग (संस्कृत में शृंग) जैसा उभार होने के कारण उनका नाम श्रृंगी पड़ा। ऋष्यशृंग विभाण्डक तथा अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। विभाण्डक ने इतना कठिन तप किया कि देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए उर्वशी को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यशृंग की उत्पत्ति हुयी। ऋष्यशृंग के माथे पर एक सींग (शृंग) था, अतः उनका यह नाम पड़ा। ऋष्यशृंग के पैदा होने के तुरन्त बाद उर्वशी का धरती का काम समाप्त हो गया तथा वह स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान कर गई। इस धोखे से विभाण्डक इतने आहत हुये कि उन्हें नारी जाति से घृणा हो...

गरूड़, सुदर्शन और सत्यभामा का अहंकार

चित्र
पौराणिक कथा : एक बार श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और उनके निकट ही गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी उनकी सेवा में विराजमान थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा- हे प्रभु, आपने त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं? भगवान सत्यभामा की बातों का जवाब देते उससे पहले ही गरूड़ ने कहा- भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। तभी सुदर्शन से भी रहा नहीं गया और वह भी बोल पड़े कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? द्वारकाधीश श्रीकृष्ण समझ गए कि तीनों में अभिमान आ गया है। श्रीकृष्ण ने गरूड़ से कहा कि हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरूड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए। उधर, श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी, आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया। तब श्रीकृष्ण...

16 वर्षीय संत ज्ञानेश्वर के 14 सौ वर्षीय शिष्य चांगदेव महाराज की कहानी

चित्र
 कथा : युवा अवस्था में ही संत ज्ञानेश्वर ने प्रभु को प्राप्त कर लिया था। संत ज्ञानेश्वर का जन्म 1275 ईस्वी में महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में पैठण के पास आपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। 21 वर्ष की आयु में ही संसार का त्यागकर समाधि ग्रहण कर ली थी। इन 21 वर्षीय संत के 14 सौ वर्षीय संत चांगदेव महाराज शिष्य थे। संत चांगदेव की उम्र 14 सौ वर्ष थी। उन्होंने अपनी सिद्धि और योगबल से मृत्यु के 42 बार लौटा दिया था। वे एक महान सिद्ध संत थे लेकिन उन्हें मोक्ष नहीं मिला था। वे कहीं एक गुफा में ध्यान और तप किया करते थे और उनके लगभग हजारों शिष्य थे। उन्होंने अपने योगबल से यह जान लिया था कि उनकी उम्र जब 1400 वर्ष की होगी तब उन्हें गुरु मिलेंगे। चांगदेव ने संत ज्ञानेश्वर की कीर्ति और उनकी महिमा के चर्चे सुने तो उनका मन उनसे मिलने को हुआ। लेकिन चांगदेव के शिष्यों ने कहा आप एक महान संत हैं और वह एक बालक है। आप कैसे उसे मिलने जा सकते हैं? यह आपकी प्रतिष्ठा को शोभा नहीं देता। यह सुनकर चांगदेव महाराज अहंकार के वश में आ गए। फिर उन्होंने सोच की क्यों न संत ज्ञानेश्‍वर को पत्र लिख...

बड़े ही ज्ञानी थे अष्टावक्र

चित्र
कथा : प्राचीन समय की बात है— एक थे उद्दालक ऋषि। उद्दालक के शिष्यों में से एक थे कहोड़। कहोड़ को वेदों का ज्ञान देने के बाद ऋषि उद्दालक ने अपनी रूपवती व गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हो गईं। इसी दौरान कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे, एक दिन गर्भ के भीतर से बालक ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित हो गयेा और बोले कि तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र यानि कि टेढ़ा हो जायेगा। इसके बाद एक दिन कहोड़ राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। हार के बाद उन्हें जल में डुबा दिया गया। इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्वेतुकेतु को अपना भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक की गोद में बैठा था तो श्वेतुकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा तू यहां से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय मे...

एक चोर कैसे बना धन का देवता कुबेर!

चित्र
कथा : इस वर्ष यानि 2019 में 25 अक्टूबर को धनतेरस मनाया जाएगा। धनतेरस और दीपावाली पर कुबेर भगवान की पूजा का भी विधान है। धनतेरस को भगवान धनवंतरि के साथ धन के देवता कुबेर की भी पूजा की जाती है। भगवान कुबेर पूर्वजन्म में एक गुणनिधी नाम के गरीब ब्राह्मण थे। बचपन में उन्होंने अपने पिता से धर्म शास्त्र की शिक्षा ली, लेकिन गलत संगत में आने के कारण उन्हें जुआ खेलने और चोरी की लत लग गई। गुणनिधी की इन हरकतों से परेशान होकर उनके पिता ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। घर से निकाले जाने के बाद उनकी हालत दयनीय हो गई और वह लोगों के घर जाकर भोजन मांगने लगे। एक दिन गुणनिधि भोजन की तलाश में गांव-गांव भटक रहे थे। लेकिन उन्हें उस दिन किसी ने भोजन नहीं दिया। इसके बाद गुणनिधि भूख और प्यास से परेशान हो गए। भूख और प्यास के कारण गुणनिधि भटकते-भटकते जंगल की और निकल पड़े। जंगल में उन्हें कुछ ब्राह्मण भोग की सामग्री ले जाते हुए दिखाई दिए। भूख की सामग्री को देख गुणनिधि की भूख और भी ज्यादा बढ गई और खाने के लालच में वह ब्राह्मणों के पीछे-पीछे चल दिए। ब्राह्मणों का पीछा करते-करते गुणनिधि एक शिवालय आ पहुंचे, जहां उन...

क्यों विवाह करना चाहते थे नारद मुनि

चित्र
कथा : कई बार भगवान को अच्छे कार्य करने पर भी शापित होना पड़ा है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि भगवान ने अनेक कष्ट सहकर भी स्वयं को मिले इन शाप को सहा है ताकि ये शाप देनेवाले व्यक्तियों का मान बना रहे। ऐसी ही एक घटना नारद मुनि से जुड़ी है। नारद मुनि भगवान विष्णु की भक्ति में साधना करने बैठ गए। ज्ञानी-ध्यानी नारद मुनि को तप करते देख देवराज इंद्र को लगा कि कहीं नारद मुनि अपने तप के बल पर स्वर्ग की प्राप्ति तो नहीं करना चाहते! इस पर उन्होंने कामदेव को स्वर्ग की अप्सराओं के साथ नारद मुनि का तप भंग करने के लिए भेजा। लेकिन नारद मुनि पर कामदेव की माया का कोई प्रभाव नहीं हुआ। तब डरे हुए कामदेव ने नारद जी से क्षमा मांगी और स्वर्ग को लौट गए। कामदेव की माया से मुक्त रहने पर नारद मुनि को इस बात का अहंकार हो गया कि उन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है। ऐसे में वह अपनी विजय का बखान करने श्रीहरि के पास बैकुंठ पहुंचे और उन्हें पूरी घटना बताने लगे कि कैसे उन्होंने कामदेव को जीत लिया। श्रीहरि विष्णु नारद जी के मन में आ चुके अहंकार को जान गए और उन्होंने अपने परम प्रिय नादर मुनि को अहंकार से मुक...

राहु-केतु के अस्तित्व की कहानी

चित्र
कथा : समुद्र मंथन के बाद अमृतपान के लिए दैत्यों की पंक्ति में स्वर्भानु नाम का दैत्य भी बैठा हुआ था। उसे आभास हुआ कि मोहिनी रूप को दिखाकर दैत्यों को छला जा रहा है। ऐसे में वह देवताओं का रूप धारण कर चुपके से सूर्य और चंद्र देव के पंक्ति में आकर बैठ गया, जैसे ही उसे अमृत पान मिला सूर्य और चंद्र देवता ने उसे पहचान लिया और मोहिनी रूप धारण किए भगवान विष्णु को अवगत कराया। इससे पहले ही स्वर्भानु अमृत को अपने कंठ से नीचे उतारता भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। क्योंकि उसके मुख ने अमृत चख लिया था इसलिए उसका सिर अमर हो गया। एक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने सिर को एक सर्प के शरीर से जोड़ दिया यह शरीर ही राहु कहलाया और उसके धड़ को सर्प के सिर के जोड़ दिया जो केतु कहलाया। पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य और चंद्र देवता द्वारा स्वर्भानु की पोल खोले जाने के कारण राहु इन दोनों देवों का बैरी हो गए।

महान गुरुओं में द्रोणाचार्य भी

चित्र
गुरुपूर्णिमा : महाभारत में धनुर्धर अर्जुन का उल्लेख विस्तार से किया गया है। अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। महान गुरुओं में द्रोणाचार्य का भी नाम आता है। एक बार महर्षि भरद्वाज जब सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में एकत्रित कर लिया। उसी में से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अपने शिष्य अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु के कहने पर अग्निवेश्य ने द्रोण को आग्नेय अस्त्र की शिक्षा दी। जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांग लिए और उनके प्रयोग की विधि भी सीख ली।

दुष्यंत और शकुंतला की अद्भुत प्रेम कहानी

चित्र
कथा : महाभारत से पहले हस्तिनापुर के राजा थे दुष्यंत। एक बार की बात है कि राजकुमार दुष्यंत वन में आखेट के लिए गये| जिस वन में वह आखेट खेलने गये थे उसी घने वन में एक महान ऋषि कण्व का भी आश्रम था| राजा दुष्यंत को जब ऋषि कण्व के उस वन में होने का पता चला तो वो ऋषि कण्व के दर्शन करने के लिए उनके आश्रम में पहुंचे| जब उन्होंने आश्रम में ऋषि कण्व को आवाज लगायी तो एक सुंदर कन्या आश्रम से आयी और उसने बताया कि ऋषि तो तीर्थ यात्रा पर गये हुए हैं| राजा दुष्यंत ने जब उस कन्या का परिचय पूछा तो उसने अपना नाम ऋषि पुत्री शकुंतला बताया| राजा दुष्यंत को ये सुनकर आश्चर्य हुआ कि ऋषि कण्व तो ब्रह्मचारी हैं तो शकुंतला का जन्म कैसे हुआ तो शकुंतला ने बताया कि मैं कण्व की गोद ली हुई पुत्री हूं, मेरे माता, पिता तो मेनका-विश्वामित्र हैं, जो मेरे जन्म होते ही उन्हें जंगल में छोड़ आये तब एक शकुन्त नाम के पक्षी ने मेरी रक्षा की थी इसलिए कण्व ऋषि ने मेरा नाम शकुंतला रख दिया। शकुंतला की सुन्दरता और बातों पर मोहित होकर राजा दुष्यंत ने शकुंतला से विवाह का प्रस्ताव रखा| शकुंतला भी राजी हो गईं और उन दोनों ने गंधर्व विवाह...