श्रीमद्भभगवद्गीता

गुरुनहत्वा हि महानुभावांछ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।

इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूं, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूंगा।
न चैतद्विद्म: कतरन्नो करीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेन हत्वा न जिजीविषामस्तेवस्थिता: प्रमुखे धार्ताराष्ट्रा:।

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना—इन दोनों में से कौन—सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेअहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।

इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूं कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूं, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।
न हि प्रपश्यामि ममपनुद्याच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।

क्योंकि भूमि में निष्कंटक, धन—धान्यसम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।
क्रमश:

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