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हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते

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सुभाषित शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे-गजे। साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने-वने। यानि हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, हर एक हाथी में गंडस्थल में मोती नहीं होते साधु सर्वत्र नहीं होते, हर एक वन में चंदन नहीं होता। उसी तरह दुनिया में भली चीजें या लोग बहुतायत में सभी जगह नहीं मिलते। ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः। बालवृद्धातुरैर्वैधैर्ज्ञातिसम्बन्धिबांन्धवैः।। मातापितृभ्यां यामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया। दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्। यानि यज्ञ करने वाले ब्राह्मण, पुरोहित, शिक्षा देने वाले आचार्य, अतिथि, माता-पिता, मामा आदि सगे संबंधी, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पत्नी, पुत्रवधू, दामाद, गृह सेवक यानि नौकर से कभी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। 

अमन्त्रम अक्षरं नास्ति...

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सुभाषित सर्व धर्म समा वृत्तिः, सर्व जाति समा मतिः। सर्व सेवा परानीति रीतिः संघस्य पद्धति। भावार्थ : सभी धर्मों के साथ समान वृत्ति सभी जातियों के साथ समानता की मति बुद्धि , सभी लोगों के साथ परायणता का व्यवहार संघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पद्धति है। अमन्त्रम अक्षरं नास्ति, मूलमनौषधं। अयोग्य पुरुषः नास्ति, योजकस्त्र दुर्लभः। भावार्थ : ऐसा कोई अक्षर नहीं जिसका मंत्र न बन सके। ऐसी कोई जड़ी–बूटी नहीं जिसकी औषधि न बन सके, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसे अयोग्य करार दिया जाए। केवल उचित योजक होना ही दुर्लभ है।

कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है

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सुभाषित— श्रोतं श्रुतनैव न तु कुण्डलेन दानेन पार्णिन तु कंकणेन। विभाति कायः करुणापराणाम् परोपकारैर्न तु चंदनेन॥२५॥ भावार्थ : कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है, हाथ की शोभा कंकण से नहीं बल्कि दान देने से है और काया (शरीर) चन्दन के लेप से दिव्य नहीं होता बल्कि परोपकार करने से दिव्य होता है। भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती। तस्यां हि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥ भावार्थ : भाषाओं में सर्वाधिक मधुर भाषा गीर्वाणभारती अर्थात देवभाषा (संस्कृत) है, संस्कृत साहित्य में सबसे अधिक मधुर काव्य हैं और काव्यों में सर्वाधिक मधुर सुभाषित हैं।

पुण्य करने से बुद्धि बढ़ती है

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सुभाषित— पुण्यं प्रज्ञा वर्धयति क्रियमाणं पुन:पुन:। वृद्ध प्रज्ञ: पुण्यमेव नित्यम् आरभते नर:॥ भावार्थ : बार-बार पुण्य करने से मनुष्य की विवेक-बुद्धि बढ़ती है और जिसकी विवेक-बुद्धि बढ़ती रहती हो, ऐसा व्यक्ति हमेशा पुण्य ही करती है।  योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका। आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति।। भावार्थ : यदि चींटी चल पड़ी तो धीरे—धीरे वह एक हजार योजन भी चल सकती है। लेकिन यदि गरूड़ अपनी जगह से नहीं हिला तो वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता।

शीलहीन मनुष्य मॄत के समान

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सुभाषित— वॄत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति च | अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: || भावार्थ : मनुष्य को अपने शील का संरक्षण प्रयत्नपुर्वक करना चाहिये, धन कमाया जा सकता है और गंवाया भी जा सकता है। धनवान परन्तु शीलहीन मनुष्य मॄत के समान है। जन्मदुःखं जरादुःखं मृत्युदुःखं पुनः पुनः । संसार सागरे दुःखं तस्मात् जागृहि जागृहि ॥ भावार्थ : संसार सागर में जन्म का, बुढ़ापे  का  और मृत्यु का दुःख बार बार आता है, इसलिए हे मानव! जाग।

उठो, जागो और श्रेष्ठ बनो

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सुभाषित— हीयते हि मतिस्तात् , हीनैः सह समागतात् । समैस्च समतामेति , विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥ भावार्थ : हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है, समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है। गगन चढहिं रज पवन प्रसंगा। भावार्थ : हवा का साथ पाकर धूल आकाश पर चढ़ जाता है। उतिष्ठ , जाग्रत् , प्राप्य वरान् अनुबोधयत् । भावार्थ : उठो, जागो और श्रेष्ठ जनों को प्राप्त कर स्वयं को बुद्धिमान बनाओ।

पुरुषों का ऐश्वर्य है सज्जनों से मित्रता

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सुभाषित— आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म। स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ।। भावार्थ : आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनों से मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दूसरे के ऊपर निर्भर न होना यह सब धन नहीं होते हुए भी पुरूषों का एश्वर्य है । शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसामिति । ज्योतिषामयनं चैव षडंगो वेद उच्यते ॥ भावार्थ : शिक्षा (उच्चार शास्त्र), कल्पसूत्र, व्याकरण (शब्द/ व्युत्पत्ति शास्त्र), निरुक्त (कोश), छन्द (वृत्त), और ज्योतिष (समय/खगोल शास्त्र)– यह छह वेदांग कहे गये हैं।

मीठी वाणी में बोले, वही अच्छी पत्नी

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  सुभाषित— सा भार्या या प्रियं बू्रते स पुत्रो यत्र निवृति:। तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते। भावार्थ : जो मीठी वाणी में बोले वही अच्छी पत्नी है, जिससे सुख तथा समाधान प्राप्त होता है वही वास्तव में पुत्र है, जिस पर हम बिना झिझके सम्पूर्ण विश्वास कर सकते हैं वही अपना सच्चा मित्र है तथा जहां पर हम काम करके अपना पेट भर सकते हैं वही अपना देश है। एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु । तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम् ॥ भावार्थ : जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते हैं।

दुर्जन मनुष्य के सारे अंग विषैले

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सुभाषित— मूर्खस्य पंच चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा। क्रोधस्य दृढ़वादश्च परवाक्येषवनादरः। मूर्खों के पाँच लक्षण होते हैं- अहंकार, दुर्वचन (कटु वाणी बोलना), क्रोध, कुतर्क और दूसरों के कथन का अनादर। वृश्चिकस्य विषं पृच्छे मक्षिकायाः मुखे विषम्। तक्षकस्य विषं दन्ते सर्वांगे दुर्जनस्य तत्। बिच्छू का विष पीछे (उसके डंक में) होता है, मक्षिका (मक्खी) का विष उसके मुँह में होता है, तक्षक (साँप) का विष उसके दाँत में होता है किन्तु दुर्जन मनुष्य के सारे अंग विषैले होते हैं।

हिमालय पर्वत से शुरू होकर भारतीय महासागर तक फैला हुआ ईश्वर निर्मित देश हिंदुस्तान

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सुभाषित— हिमालयं समारभ्य यावत् इंदु सरेावरम् | तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते || भावार्थ : हिमालय पर्वत से शुरू होकर भारतीय महासागर तक फैला हुआ ईश्वर निर्मित देश "हिंदुस्तान", यही वह देश है, जहाँ ईश्वर समय-समय पर जन्म लेते हैं और सामाजिक सभ्यता की स्थापना करते हैं। उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ।। समुद्र के उत्तर और बर्फ के पहाड़ों के दक्षिण में है जिसे ' भारतम' कहते है | और यहाँ पर ‘भरत’ के वंशजों की मौजूदगी के प्रमाण भी मिले हैं। (भारतवर्ष में आज के पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन,ईरान,ताजिकिस्तान, उज्वेकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस, तुर्कमेनिस्तान, तिब्बत, नेपाल और बांग्लादेश सभी सम्मिलित थे|)

गुरु की निंदा का विरोध करना चाहिए

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सुभाषित— प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा । शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥ भावार्थ : प्रेरणा देने वाले, सूचना देने वाले, सच बताने वाले, रास्ता दिखाने वाले, शिक्षा देने वाले, और बोध कराने वाले – ये सब गुरु समान हैं। विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् । शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥ भावार्थ : विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं। गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते । कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥ भावार्थ : जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए । यदि यह सम्भव न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए और यदि वह भी शक्य न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए।

'चातुर्य नारी का आभूषण है'

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 सुभाषित— अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्। चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥ भावार्थ : तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है। अतीव  बलहीनं  हि  लङ्घनं  नैव  कारयेत्  | ये गुणा: लङ्घने प्रोक्तास्ते गुणा: लघुभोजने|| भावार्थ – अत्यन्त दुर्बल व्यक्तियों को उपवास कभी नहीं करना चाहिये| उपवास में जो गुण हैं वे सभी गुण कम और सुपाच्य भोजन करने में भी होते हैं|

प्रिय बोलें लेकिन अप्रिय सत्य न बोलें

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सुभाषित- सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं। प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः॥ भावार्थ : सत्य बोलें, प्रिय बोलें पर अप्रिय सत्य न बोलें और प्रिय असत्य न बोलें, ऐसी सनातन रीति है ॥ मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा। क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥ भावार्थ : मूर्खों के पाँच लक्षण हैं - गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर

'ज्ञानी इन्सान ही सुखी है'

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सुभाषित— नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत्। नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥ भावार्थ : विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं और विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं।  ज्ञानवानेन सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति। ज्ञानवानेव बलवान् तस्मात् ज्ञानमयो भव॥ भावार्थ : ज्ञानी इन्सान ही सुखी है और ज्ञानी ही सही अर्थ में जीता है, जो ज्ञानी है वही बलवान है, इस लिए तूं ज्ञानी बन।

'ज्ञान नहीं तो धन नहीं'

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सुभाषित — अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥ भावार्थ : आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा? यदि ज्ञान नहीं तो धन नहीं मिलेगा। यदि धन नहीं है तो अपना मित्र कौन बनेगा और मित्र नहीं तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा।

'ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसकी औषधि न बने'

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सुभाषित - नाक्षरं मंत्रहीतं नमूलंनौधिम्। अयोग्य पुरुषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः भावार्थ : ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र के लिए प्रयोग न किया जा सके, ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है जिसका औषधि के लिए प्रयोग न किया जा सके और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसका सदुपयोग के लिए न प्रयोग किया जा सके, किन्तु ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं जो उनका सदुपयोग करना जानते हों।

योग और संगीत का समावेश प्राचीन काल से

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आयुधर्मयशोवृद्धिः धनधान्‍य फलम्‌ लभेत्‌। रागाभिवृद्धि सन्‍तानं पूर्णभगाः प्रगीयते॥ भावार्थ : आयु, धर्म, यश वृद्धि, सन्‍तान की अभिवृद्धि, धनधान्‍य, फल-लाभ इत्‍यादि के लिये पूर्ण रागों का गायन करना चाहिये। भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति में योग और संगीत का समावेश भी प्राचीन काल से है। स्‍वर साधना स्‍वयं एक यौगिक क्रिया है जिसमें मन, शरीर व प्राण तीनों में शुद्धता एवं चैतन्‍यता आती है। भारतीय संस्‍कृति में योग के साथ संगीत का गहरा रिश्‍ता रहा है। योग के सिद्धान्‍त के अनुसार श्‍वासों से जुड़ना अर्न्‍तमन से जुड़ना है और व्‍यक्‍ति जब अन्‍तर्मन से जुड़ जाता है तो ऋणात्‍मक संवेग कम हो जाता है और धनात्‍मक संवेग स्‍थायी होने लगते हैं। ये धनात्‍मक संवेग मनोविकारों से व्‍यक्‍ति को दूर रखते हैं।