बेशर्म पार्टी है कांगे्रस और उनके नेताओं के बोल

विचार : लोकसभा चुनाव 2019 में सभी राजनीतिक दलों ने जीत के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। राष्ट्रीय मंच पर सबसे आगे भाजपा चल रही है। उसके कहीं दूर पीछे कांगे्रस मजबूरी में है। तीसरा स्थान है ही नहीं, क्योंकि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि वह किस करवट बैठेंगे। राजनीति की लड़ाई में राजनीतिक दलों के नेता अभद्रता की सीमा पार कर चुके हैं, हालांकि चुनाव आयोग ने ऐसे नेताओं पर लगाम तो लगायी, लेकिन कहां तक चुनाव आयोग नजर रख पायेगी, जब सभी कुएं में भांग पड़ी है। अबकी बार तो राजनीति की लड़ाई में नैतिकता तो रह ही नहीं गयी, एकाध दल को छोड़ दें तो। प्रधानमंत्री अपने आप में एक हस्ती है लेकिन बिना सबूत चोर कहा जा रहा है, इस कद्र भारत की बेइज्जती होगी विदेशों में यहां का भद्र नागरिकों ने कम से कम तो ऐसी कल्पना कभी नहीं की होगी। यदि कांगे्रस पार्टी की बात की जाये तो निहायत ही बेशर्म और तर्कहीन पार्टी है, जो शुरू से आज तक झूठ और झूठ जनता के बीच परोसती रही और हम जनता उनकी बातों में आते रहे। कांगे्रस के मौजूदा अध्यक्ष स्वयं बहरूपिया हैं, न पिता का पता न खानदान, दुनिया अंदर से जनेऊ पहनती है, हमारे राहुल जी कोट और सदरी के ऊपर जनेऊ पहनते हैं, हमारे देश में दादा, बाबा का वंश बताया जाता है, कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी अपने नाना का वंश तो बताते ही हैं लेकिन टाइटिल लिखते हैं गांधी यानि गांधी की औलाद। अजीब है भारत और अद्भुत हैं हम भारतवासी। उधर दूसरी ओर बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रियंका गांधी को न उतारने के कांग्रेस के फैसले से एक बड़े तबके को निराशा हुई है। पिछले दिनों कांग्रेस के भीतर से ही यह चर्चा उठी थी कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक मजबूत उम्मीदवार के रूप में पार्टी प्रियंका गांधी को आगे ला सकती है। लेकिन मोदी के रोड शो के बाद कांगे्रस को अपना कदम पीछे लेना पड़ा। प्रियंका गांधी वाड्रा को चुनाव लड़ाने की पेशकश से देश के उस वर्ग में उत्साह पैदा हुआ था जो इस लोकसभा चुनाव को एक वैचारिक लड़ाई के रूप में देख रहा है और मान रहा है कि सर्वसमावेशी चरित्र वाली कांग्रेस ही बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति को चुनौती दे सकती है। चूंकि मोदी बीजेपी का प्रतिनिधि चेहरा हैं तो उनके बरक्स विपक्ष के भी किसी शीर्ष नेता को ही उतारा जाना चाहिए, ताकि वैचारिक संघर्ष को एक धार मिल सके। जब दोनों खेमों के बड़े नेता एक-दूसरे के सामने खड़े होंगे तो दो भिन्न सिद्धांत बेहतर ढंग से सामने आएंगे। इससे पूरे देश की जनता के सामने परिदृश्य साफ होगा और मतदान को लेकर एक मजबूत फैसले तक पहुंचने में उसे सहूलियत होगी। लेकिन पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने नई जमीन तोडऩे के बजाय लीक पर चलना ही पसंद किया। भारत की संसदीय राजनीति में ताकतवर नेता के खिलाफ विरोधियों की ओर से कमजोर उम्मीदवार देने का चलन सा बना हुआ है। हर पार्टी इस अघोषित नियम का पालन करती है, शायद इसलिए कि अपनी सीटें खोने का जोखिम वह नहीं लेना चाहती। हालांकि इसे सिद्धांत का आवरण दिया जाता है। उनकी ओर से दलील दी जाती है कि असली लड़ाई तो संसद में होनी है, इसलिए वे चाहते हैं कि हर पार्टी के कद्दावर नेता सदन में पहुंचें। अपने निर्णय के लिए राहुल ने नेहरूवादी परंपरा का हवाला दिया। उनका तर्क था कि नेहरू अपने विरोधियों जैसे राममनोहर लोहिया और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का काफी सम्मान करते थे और चाहते थे कि वे संसद में रहें। तो क्या माना जाए कि राहुल भी मोदी के सम्मान के लिए उन्हें संसद में भेजना चाहते हैं? उधर बीजेपी भी राहुल और सोनिया गांधी के खिलाफ अपने जूनियर नेताओं को ही उतारती रही है।  पार्टियां अगर अपने विचारों को लेकर ईमानदार हैं और जनता के प्रति अपनी जवाबदेही मानती हैं तो मजबूत विरोधियों के खिलाफ अपने मजबूत नेता उतारें। ऐसे जनमानस को भले ही ठेंस पहुंची हो कांगे्रस के फैसले से, लेकिन ऐसे लोगों को यह मान लेना चाहिए कि कांगे्रस पार्टी हमेशा से झूठ बोलती रही है, जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करती रही है। घोटाले और लूटने का काम नेहरू जी के प्रथम शासनकाल के प्रथम वर्ष से ही शुरू हो गया था। इसलिये जरूरी है कि कांगे्रस की नीेतियों और सच्चाइयों को पूरी प्रबलता के साथ समाज में संदेशित करना चाहिए, अन्यथा मोहम्मद गोरी की तरह कभी न कभी भारतीय जनता को झांसे में ला ही सकती है झूठी कांगे्रस।

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