त्याग में ही आनंद है

बोधकथा : गुरु और शिष्य रास्ते में विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे थे। इसी क्रम में त्याग बनाम संचय पर बहस शुरू हो गई। गुरु का कहना था कि त्याग में सुख और आनंद है, वहीं शिष्य का कहना था कि संचय में ही वास्तविक आनंद की प्राप्ति है। चलते-चलते सूर्यास्त हो गया और सामने नदी आ गई। गुरु जी त्यागी थे, इसलिए उनके पास नाविक को देने के लिए पैसे न थे। शिष्य संचयी था, उसके पास पैसे तो थे पर देने में वह संकोच कर रहा था। रात होने लगी तो शिष्य घबरा गया कि रात्रि में कहीं जंगली जानवर खा गए तो। डरते हुए अंतत: उसने पैसे निकाले। अपना और गुरु जी का भाड़ा दिया। इस तरह वे दोनों नदी पार कर गए। नौका से उतरने के बाद शिष्य बोला, गुरु जी, मैं न कहता था कि संचय में ही सुख है। यदि मेरे पास पैसे संचित न होते तो कैसे नदी पार करते? गुरु बोले, 'वत्स, जब तक तुमने पैसे संचित रखे, तब तक नदी के उस पार ही खड़े रहे। जब पैसों का त्याग किया यानी पैसे नाविक को दिए, तभी नदी पार कर सके। यदि त्याग न करते तो यहां तक कैसे पहुंचते? अत: त्याग में ही सुख है।

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