आज आनुवंशिक रूप से तय की जाती है जाति व्यवस्था


विचार : देश में जाति व्यवस्था हमेशा से बहस का विषय रहा है, और आज राजनीति का विशेष मुद्दा बन गया है। सनातन धर्म में जाति या वर्ण कार्यों के आधार पर बांटा गया। अध्यापन करने वाले को शिक्षक, ​स्वास्थ्य से सम्बन्धित वैद्य, लकड़ी से सम्बन्धित कार्य करने वाले को बढ़ई, मुनाफा का ध्यान रखने वाला वैश्य, सेवा का कार्य करने वाला शूद्र, आदि—आदि नाम प्राचीन सभ्यता से चली आ रही हैं। लेकिन आधुनिक युग में जातियों का अपभ्रंश हो गया है। अब जाति आनुवंशिक हो गया है। जैसे ब्राहृमण् का बेटा ब्राहृमण, क्ष​त्रिय का बेटा क्षत्रिय चाहे भले ही वह लकड़ी से सम्बन्धित कार्य करता हो। वह व्यक्ति कैसे ब्राहृमण हो सकता है जो व्यापार करता हो, वह व्यक्ति कैसे वैश्य हो सकता है जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करता हो। यानि कि आज कार्यों के आधार पर जाति नहीं बल्कि आनुवंशिकी आधार पर जाति का विभाजन किया जा रहा है। और यही कारण है कि समाज में जातिवाद का जहर फैलता जा रहा है, जिससे निजात की जरूरत है। धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों के कार्यों से समाज का स्थाईत्व दिया गया हैै - ब्राह्मण (शिक्षाविद), क्षत्रिय (सुरक्षाकर्मी), वैश्य (वाणिज्य) और शूद्र (उद्योग व कला) ।इसमे सभी वर्ण को उनके कर्म मे श्रेष्ठ माना गया है।शिक्षा के लिए ब्राह्मण श्रेष्ठ, सुरक्षा करने मे क्षत्रिय श्रेेष्ठ, वैश्य व शूद्र उद्योग करने मे श्रेेष्ठ । वैश्य व शूद्र वर्ण को बाकी सब वर्ण को पालन करने के लिए राष्ट्र का आधारभूत संरचना उद्योग व कला (कारीगर) करने का प्रावधान इन धर्म ग्रंथों में किया गया है। सेवा राष्ट्र का कारक है, उदाहरण केे लिए सभी देश का आधार सेवा कर है। विश्व में कई धर्म हैं, उनके लिए परमात्मा का स्वरूप भिन्न है और उनकी मान्यताएं भी भिन्न है जिसके कारण समय समय पर दंगे फंसद होते रहते है इन्हें शासन की सुरक्षा व्यवस्था से ही नियंत्रित किया जा सकता है अन्य कोई स्थाई उपाय नहीं है । सभी धर्मों में कई संस्कृति और जाति है जो एक दूसरे को अपने धर्म के अन्य संस्कृति से श्रेष्ठ व उच्च समझकर अन्यों को तुच्छ व निम्न समझते है जैसे हिन्दू में जातिवाद मुस्लिम में सिया सिन्नी आदि ये प्रचीन धर्मों से जुड़े लोगों की निजी अवधारणा है इसे बदला नहीं जा सकता स्वयं को समझना होता है की सभी इंसान है बस उनके धर्म संस्कृति जाति भिन्न है । जिस मनुष्य में जितना अधिक विवेक और बुध्दि होता है वहां उतना अधिक धन दौलत नाम कमाता है अमीरी गरीबी का सीधा सम्बन्ध मनुष्यों के ज्ञान और समाज के लोगो की मनोस्थित को समझने की क्षमता से है परन्तु परिवार की सम्पन्नता और दरिद्रता का भी मनुष्य की गरीबी अमीरी का कारण होता है जिसे मानसिक व शारीरिक परिश्रम करके बढाया या घटाया जा सकता है । आरक्षण शासन प्रणाली के अंतर्गत है जिसमें किसी एक धर्म संस्कृति जाति क्षेत्र के लोगों की धन दौलत पद और मानसिकता का आकलन कर उन्हें कुछ वर्षो या अनिश्चित काल तक के लिए शासन के कार्यालय में पदों व शिक्षा व धन राशि लागत में या सुरक्षा में छूट दी जाती है अन्य धर्म संस्कृति जाति व क्षेत्रों के लोगों के मुकाबले ऐसा आरक्षण इतिहास में कई राष्ट्रों में हुआ है अभी भी कई राष्ट्र की शासन प्रणाली में आरक्षण है और भविष्य में भी होगा ये पूर्णतः उचित क्योंकि जो धन दौलत शिक्षा पद से पीछे है अन्यों के मुकाबले उन्हें राष्ट्र के अन्य संस्कृति व लोगो के बराबर लाना उचित है जिसे सभी लोग समाज में एक सामान सम्पन्नता व उन्नति को प्राप्त करे जिसे देश का विकास अच्छा होता है। वहीं सभी को समानता का अधिकार है लेकिन कुछ लोगों को बराबरी के इस हक में भी तरजीह दी जाती है क्योंकि जाति विशेष के कारण उनके नाम का डंका बजता है। परंतु अदालती मामलों में अब ऐसा नहीं चलेगा। पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने ताजा आदेशों में फौजदारी मामलों की प्राथमिकी में अभियुक्त की जाति का जिक्र करने की सख्त मनाही की है। तर्क है कि ऐसे विवरणों से न केवल न्याय ही प्रभावित होता है बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के उस मूल हक का भी उल्लंघन होता है, जिसमें हर किसी को सम्मानपूर्वक व स्वाभिमान से जीने का हक दिया गया है। फिर इससे जांच प्रक्रिया भी तो प्रभावित होती है क्योंकि ऐसे मामलों में जांच अफसरों का रवैया भी अपनी जाति के लोगों के प्रति पक्षपातपूर्ण हो सकता है। अदालत ने कहा है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी हम 1934 में दर्ज एफआईआर के संदर्भ में ब्रिटिशकाल के उस फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं, जिसमें शिकायतकर्ता ने अभियुक्त की जाति विशेष के जिक्र को लाजिमी बताया था। अदालत का मानना है कि अतीत की बुरी प्रथाओं से चिपके रहना अनुचित है। इसीलिए भारत को इन औपनिवेशिक रिवायतों को अब और ढोने से गुरेज़ करना चाहिए।

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