देश को फिर तोड़ना चाह रहे भारत मां के कपूत

विचार : भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में एक दोधारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं शब्द पर 150 शब्दों में निबंध लिखना होता है, जिसमें अच्छे—अच्छे आसानी से नहीं लिख पाते। कुछ इसी तर्ज पर आज का भारतीय राजनीति है। बताते चलें​ कि मौजूदा समय में लोकसभा चुनाव का प्रचार और मतदान चल रहा है, सभी नेताओं की निगाहें जीत पर लगी हैं। और इसी जीत को पुख्ता करने के लिए एकदूसरे को अपशब्द यहां तक कि गाली दी जा रही है, जो समाज के लिए बिल्कुल हितकर नहीं है और ऐसे नेताओं का बहिष्कार करना चाहिए, जो निहायत ही बदजुबान हैं, खासकर महिलाओं के खिलाफ बोलने वालों को, लेकिन जनता ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसे नेताओं को शह तो जनता ही जाने—अन्जाने में दे रही है। होना तो यह चाहिए कि देश और महिलाओं के खिलाफ उचित दंड मिलना चाहिए। ताजा उदाहरण बेगूसराय से लोकसभा चुनाव लड़ रहा देशद्रोही कन्हैया है। कन्हैया खुद भारत में पैदा हुआ है और उसके सपोर्टर भी, लेकिन भारत माता से ऐसे देशद्रोहियों को क्या दिक्कत है, इनके पास जवाब नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि ऐसे लोग हिंदू सभ्यता और भारत को खत्म करना चाहते हैं। थोड़ा सा पीछे जाएं तो ज्ञात होगा कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत का नाम बदलकर इंडिया रख दिया, ऐसा क्यों किया गया कि भारत का नाम ही मिट जाये। ज्ञात हो कि सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान आपत्तिजनक आरोप-प्रत्यारोप और टीका-टिप्पणियों की कीचड़ उछाल स्पर्धा में लगे राजनेताओं के चलते विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए शायद यही दिन देखना शेष रह गया था, जब नेताओं के बोलने पर ही पाबंदी लगा दी जाये। देश की सर्वोच्च अदालत के सख्त रुख के बाद ही सही, चुनाव आयोग को अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही का अहसास हुआ और उसने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बसपा सुप्रीमो मायावती, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और बड़बोले सपा नेता मोहम्मद आजम खान पर अलग-अलग समय सीमा के लिए न सिर्फ चुनाव प्रचार, बल्कि मीडिया को इंटरव्यू देने और ट्वीट करने तक पर पाबंदी लगा दी। ये छुटभैये नेता नहीं हैं। योगी देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं तो मायावती तीन बार उसी प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। मेनका गांधी दूसरी बार केंद्र सरकार में मंत्री हैं। आजम खान पहले मुलायम सिंह यादव और फिर उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकार में दबंग मंत्री रह चुके हैं। इन सभी के पास लंबा राजनीतिक अनुभव है। अपने-अपने समर्थक वर्गों में बड़ी संख्या में युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए ये रोल मॉडल भी होंगे ही, लेकिन क्या इन्होंने कभी सोचा भी है कि अपने आचरण से वे कैसा आदर्श पेश कर रहे हैं? भाजपा पर विभाजनकारी नीतियां अपनाने का आरोप लगाते हुए उत्तर प्रदेश में (एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे) सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन हुआ है। अल्पसंख्यक बहुल देवबंद में आयोजित गठबंधन की पहली ही साझा रैली में मायावती ने जिस तरह मुसलमानों से वोट विभाजन से बचने और एकतरफा वोट करने की अपील की, वह आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि भारत के संविधान की अवमानना भी है, जो नागरिकों में जाति-धर्म के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करने की बात कहता है। ऐसा नहीं है कि मायावती यह नहीं जानतीं, पर दूसरे राजनेताओं की तरह वह यह भी जानती हैं कि चुनाव आयोग नसीहत देने के सिवाय कुछ नहीं करेगा। यह भी कि ऐसी नसीहतों, जिन्हें कभी-कभी फटकार का नाम भी दे दिया जाता है, से समर्थक वर्ग पर नकारात्मक के बजाय सकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। माया के बाद बारी योगी की थी, जिन्होंने 9 अप्रैल को मेरठ में कहा कि अगर सपा-बसपा-कांग्रेस को अली पर भरोसा है तो उन्हें बजरंग बली पर भरोसा है। हम ईश्वर को जिस भी नाम-रूप में मानें, जिस भी धर्म का पालन करें, यह कल्पना भी मुश्किल है कि ईश्वर या धर्म पर किसी खास जाति-वर्ग का कॉपीरइट हो सकता है। पर संत कहे जाने वाले योगी आदित्यनाथ ने कम से कम बजरंग बली के मामले में तो यह भी कर दिखाया। यह कैसे संभव था कि योगी की इस टिप्पणी का मायावती जवाब नहीं देतीं। 13 अप्रैल को जवाब आया भी : बजरंग बली दलित हैं, अब तो बजरंग बली भी हमारे हैं और अली भी। अक्सर मजाक में कहा जाता था कि जिसे अपनी सात पुश्तों का पता न हो, वह चुनाव लड़ ले, विरोधी सब कुछ खोज लायेंगे, लेकिन यहां तो हमारे राजनेता ईश्वरीय रूपों की भी जाति खोज लाये। इस बीच मेनका भी बोलीं, जो अपने बेटे वरुण गांधी को अपेक्षाकृत सुरक्षित समझी जाने वाली अपनी पीलीभीत सीट भेजकर खुद इस बार उनकी सुल्तानपुर सीट से चुनाव लड़ रही हैं। अल्पसंख्यक वर्ग और भाजपा के रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं। यह आम धारणा है कि अल्पसंख्यक वर्ग भाजपा को हरा सकने वाले उम्मीदवार को ही वोट देता है। बेशक यह किसी भी सभ्य समाज और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सुखद स्थिति नहीं कही जा सकती, लेकिन अपनी जीत का विश्वास जताते हुए मेनका ने जिस तरह अल्पसंख्यकों को चेतावनी दी कि अगर वोट नहीं दिया तो फिर देखना मैं क्या करती हूं, मैं कोई महात्मा गांधी नहीं हूं—वह हर दृष्टि से आपत्तिजनक ही माना जायेगा। एक जिम्मेदार राजनीतिक दल और नेता का यह दायित्व भी है कि अपने प्रति किसी भी तरह की शंका-आशंका का निवारण करते हुए समाज के सभी वर्गों का विश्वास जीते, लेकिन हमारे राजनीतिक दलों-नेताओं को समाज को जोडऩे के बजाय जाति-धर्म के आधार पर बांट कर ध्रुवीकरण की राजनीति ज्यादा आसान और कारगर लगती है, और चुनाव-दर-चुनाव वही जोर पकड़ रही है। आम लोकप्रिय गीतों में से एक है : मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, लेकिन लगता है कि हमारी राजनीति ने नफरत फैलाने के अलावा न कुछ सीखा है और न ही कुछ सिखा रही है। चार बड़े नेताओं की बोलती बंद कर दिये जाने के बावजूद हमारे राजनेता सुधरने को तैयार नहीं हैं। इसकी पुष्टि पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के 16 अप्रैल को बिहार के कटिहार में दिये भाषण से होती है। महागठबंधन उम्मीदवार तारिक अनवर के समर्थन में प्रचार के दौरान सिद्धू ने अल्पसंख्यकों को याद दिलाया कि 62 फीसदी आबादी के साथ वे वहां बहुसंख्यक हैं और यह बात उन्हें भूलनी नहीं चाहिए। अब आदर्श चुनाव आचार संहिता पर लौटते हैं। ऊपर हमने आजम खान का जिक्र किया था। अपनी बेलगाम भड़काऊ टिप्पणियों के लिए जाने, जाने वाले (और शायद इसीलिए समाजवादी पार्टी को उपयोगी अल्पसंख्यक चेहरा लगने वाले) आजम ने इस बार शालीनता की भी तमाम हदें पार कर दीं। सपा की भी सांसद रह चुकीं फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा का आजम खान से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। अमर सिंह के साथ ही सपा से बाहर आ गयीं जयाप्रदा इस बार भाजपा के टिकट पर रामपुर से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं, जहां से आजम सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के उम्मीदवार हैं। 14 अप्रैल को आजम ने जया के बारे में जो टिप्पणी की, उसकी अभद्रता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसे यहां लिखना भी उचित नहीं लगता। स्वाभाविक ही इसकी चौतरफा आलोचना हुई। सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद चुनाव आयोग की तंद्रा भी टूटी, पर आजम तो आजम हैं। 16 अप्रैल को फिर बोले : चुनाव के बाद कलक्टरों से मायावती के जूते साफ करवायेंगे। यह भाषा उस नेता की है जो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कई बार मंत्री रह चुका है। आजम पर पाबंदी के बाद उनके बेटे की टिप्पणी और भी चौंकाने वाली है। उन्होंने कहा कि मुसलमान होने के नाते पाबंदी लगायी गयी। इसी तरह मायावती की अनुपस्थिति में प्रचार की कमान संभालते हुए उनके भतीजे ने कटाक्ष किया कि ऐसे देंगे आयोग को जवाब। दरअसल, हमारे राजनेताओं का यह आचरण विशुद्ध वोट बैंक राजनीति से प्रेरित तो है ही, खुद को हर जिम्मेदारी-जवाबदेही से ऊपर मानने की मानसिकता का परिचायक भी है। ये चार तो बोलने पर पाबंदी की वजह से मिसाल बन गये, वरना बिगड़े बोल वाले नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। सच तो यह है कि ऊलजलूल टिप्पणियां कर समाचार माध्यमों और सोशल मीडिया की सुर्खियां बटोरने और उनसे अपने वोट बैंक को गोलबंद करने के खतरनाक खेल में जुटे राजनेताओं में एक स्पर्धा–सी चल रही है। इसी स्पर्धा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पुलवामा और बालाकोट के नाम पर वोट मांग कर सेना के शौर्य का राजनीतिकरण करने में कुछ भी गलत नहीं लगता तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी देश की सर्वोच्च अदालत की टिप्पणियों की मनमानी व्याख्या करते हुए प्रधानमंत्री के विरुद्ध 'चौकीदार चोर है' के नारे लगाते देश भर में घूम रहे हैं, जिस पर उनसे जवाब भी तलब किया गया है। चुनाव-दर-चुनाव हमारे राजनीतिक दलों-नेताओं की प्रतिष्ठा जिस तेजी से गिरती जा रही है, उसके मद्देनजर उनसे किसी आदर्श आचरण की अपेक्षा तो अब रही नहीं, लेकिन संविधान और आदर्श आचार चुनाव संहिता के प्रति तो उन्हें सम्मान का भाव दिखाना ही चाहिए। संविधान और आदर्श चुनाव आचार संहिता के प्रति अवमानना का यह भाव उस देश में तो और भी चिंताजनक संकेत है, जिसे विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है और जिसकी चुनाव प्रक्रिया की विदेशों में बड़ी साख है। इस साख का भी तकाजा है कि चुनाव आयोग तथा दूसरी संस्थाएं सत्तामुखी बने रहने के बजाय स्वयं ही अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने के प्रति प्रतिबद्धता दिखायें। बेशक चुनाव आयोग के अधिकारों की बाबत भी निर्णायक सोच और फैसले का समय आ गया है, पर उससे भी जरूरी इच्छाशक्ति है। बहरहाल, देश को आगे बढ़ाने के लिए जनता और नेता दोनों को समझना चाहिए कि बहुमत नहीं सर्वमत से देश आगे बढ़ेगा। एक भी असंतुष्ट मतदाता विपक्ष में गया तो समझना होगा कि हम देशवासियों में कहीं न कहीं बहुत बड़ी खामी है, जो लैपटॉप, बेरोजगारी भत्ता, यहां तक कि शराब जैसे घिनौने पदार्थ के लिए अपना अमूल्य देशद्रोही नेताओं को दे देते हैं। हमारा एक वोट ही उस नेता को शक्तिशाली बनाता है जो हिंदू या भारतीय समाज तोड़ना चाह रहा है। गौरतलब बात यह भी है कि सभी राजनीतिक दल बेईमान नहीं है, दस नेताओं में से 9 खराब हो सकते हैं, लेकिन उसमें से एक नेता ईमानदार ही मिलेगा आपको, न ईमानदार मिले तो कम से कम बेईमान तो नहीं होगा। अत: देश के विकास के लिए सर्वएकता जरूरी है।

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