चौकीदार चोर है, मामले में राहुल गांधी को मांगनी ही पड़ी माफी

विचार : अपने रैलियों में चौकीदार चोर है, का नारा लगवाने वाले राहुल गांधी को आखिर माफी मांगनी ही पड़ी। अब क्या मुंह लेकर जनता के बीच जाएंगे, अब तो ऐसा लगने लगा है कि राहुल गांधी खुद ही लुटेरे हैं, जो जनता के पैसे की लूट की है और जमानत पर घूम रहे हैं और बड़ी बेशर्मी से देशभक्त मोदी को चोर जैसा अपमानित करने वाला शब्द कहा। कांगे्रस के डीएनए में है देशभक्तों को अपमानित करना जैसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बाबू सुभाषचंद्र बोस को किया था। लोकसभा चुनाव 2019 को लेकर हताशा और जीवंतता को परिभाषित करने की जरूरत नहीं, बल्कि हालात और संतुलन खोते व्यक्ति का आचरण व टिप्पणियां ही उसकी हताशा का प्रमाण दे देती है। मौजूदा समय में जब चुनावी बयार के बीच सियासी जंग अपने शवाब पर है, तब नेताओं की बतकही, फिसलती जुबान और मर्यादाओं को लांघते आरोपों की बौछार बता देती है कि जीवंतता और हताशा के बीच कितनी गहरी खाई बन चुकी है। इसी संदर्भ को क्षेत्रीय पार्टियों से इतर राष्ट्रीय ताने-बाने में जब विचार करने की कोशिश की जाती है तो कांगे्रस के अध्यक्ष राहुल गांधी की तस्वीर उभर कर सामने आ जाती है। विनाश की कगार पर खुद अपनी पार्टी को यह अकेले मसीहा हैं, जिन्होंने राफेल के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगी। यह वही व्यक्ति हैं, जिनकी नागरिकता पर जवाब मांगा गया और हताशा का आलम देखिये यह वही राहुल गांधी हैं, जिन्हें फिलहाल मोदी के अलावा आलोचना के लिए न कोई व्यक्ति दिखता है और न ही कोई मुद्दा। दिल्ली के शस्त्री भवन में आग लगी। लेकिन आग बुझने से पहले राहुल गांधी ने मोदी को निशाना बनाते हुए आरोप लगाया कि आग के चलते आप आरोपों से बच नहीं सकते। बचकानी सियासत का यह सबसे घृणित सच है या राहुल गांधी खुद अपनी पार्टी को समापन की ओर ले जाने के लिए लगता है अंतिम प्रयास करने की मुहिम में हैं। इसी संदर्भ में चलिये महात्मा गांधी का जिक्र भी करते चलें, लेकिन समझना होगा कि भारत की सनातन संस्कृति व राष्ट्रीयता अब भारतीय राजनीति के केद्र में स्थापित हो चुका है तथा राष्ट्रवाद आज की राजनीति का मुख्य स्वर बन चुका है। ऐसे में इस  इस सत्य की अनदेखी कर अवांछनीय चरित्र को वरण करना कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। महात्मा गांधी ने कांग्रेस को भंग कर देने का प्रस्ताव जरूर प्रस्तुत किया था, किन्तु उसे लोकसेवक संघ बनाने का  सुझाव भी दिया था, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं को भारत राष्ट्र के नवोत्थान  में  संलग्न करना था, न कि राष्ट्र को खण्डित-विखण्डित  करने का नारा लगाने वाले गिरोहों-समूहों की तरफदारी में प्रवृत करना।  ऐसा कहा जा सकता है कि कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व सियासत के जिस मार्ग पर इसे ले जा रहा है, उससे जाने-अनजाने महात्माजी की इच्छा पूरी तो हो सकती है,  पतन-पराभव की ओर तेजी से ढलती कांग्रेस को राजनीति की धुरी पर फिर से स्थापित करने की जद्दोजहद के बीच इधर इसके नेतृत्व के द्वारा तरह-तरह के प्रयोग किये जाते रहे। किन्तु राहुल गांधी को पार्टी-अध्यक्ष की कमान सौंपने और फिर प्रियंका वाड्रा को महासचिव बनाने जैसे ये सारे टोटके पुरुषार्थविहीन प्रयोग ही सिद्ध हुए, क्योंकि पार्टी परिवारवाद व वंशवाद की जकडन से मुक्त होने का साहस अब तक भी नहीं बटोर पायी।  इन सब प्रयोगों के परिणाम आने बाकी ही थे कि इसी दौरान आम-चुनाव ने उसे फिर घेर लिया। इस बार का आम-चुनाव राष्ट्रीयता के उफान से भरा हुआ है, जिसमें अपने को टिकाये रखने के लिए कांग्रेस ने वोटों के लिए जिन-जिन ओटों का सहारा लिया है , वे सारे के सारे उत्थान के बजाय पतन के गर्त में ही धकेलने वाले सिद्ध हो रहे हैं। भारत को टुकड़े-टुकड़े करने का नारा लगाने वाले गिरोहों के साथ युगलबन्दी करने तथा भाजपा-मोदी-विरोध के नाम पर भारत-सरकार के विरुद्ध पाकिस्तान की ही वकालत करने लगने और अपने चुनावी घोषणा-पत्र में देश-द्रोह कानून को समाप्त कर देने का वादा करने के साथ मतदाताओं को रिश्वत की तर्ज पर सालाना बहत्तर हजार रुपये देने की पेशकस करने से कांग्रेस का बनावटी चरित्र भी विकृत हो कर अभारतीय हो चुका है। वहीं दूसरी ओर मतदाताओं को बहत्तर हजार रुपये देने की घोषणा को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रिश्वत की पेशकश मान उस पर संज्ञान लेते हुए पार्टी को जन-प्रतिनिधित्व कानून के हनन का नोटिस जारी कर दिया है, जिससे एक और संकट खडा हो सकता है वर्तमान स्थिति व प्रवृति को देखने से ऐसा प्रतीत होता है महात्मा गांधी की एक इच्छा उनकी अपेक्षा से उलट वीभत्स रुप में अब शीघ्र पूरी होने वाली है । 15 अगस्त 1947 के बाद गांधी जी ने कहा था कि भारत की आजादी का लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद एक राजनीतिक दल के रुप में कांग्रेस के बने रहने का अब कोई औचित्य नहीं है, अतएव इसे भंग कर के लोक सेवक संघ बना देना चाहिए और कांग्रेस के नेताओं को सामाजिक कार्यों में
जुट जाना चाहिए। गांधीजी ने अपनी हत्या के तीन दिन पहले यानी 27 जनवरी
1948 को एक नोट में लिखा था कि अपने "वर्तमान स्वरूप में कांग्रेस अपनी
भूमिका पूरी कर चुकी है, अतएव इसे भंग करके एक लोकसेवक संघ में तब्दील कर
देना चाहिए। हत्या के तीन दिन पहले कांगे्रस के खिलाफ बोलना और उसके तीन दिन बाद उनकी हत्या हो जाना कहीं न कहीं जरूर कांगे्रस पार्टी पर शक की गुंजाइश बनती है। जिस तरह सोनिया गांधी राजीव गांधी की हर रैली में साथ रहा करती थीं और जिस रैली में राजीव गांधी की मौत हुई सिर्फ उसी में सोनिया मैडम अपने पति के साथ नहीं थीं।

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