'एक बार फिर मोदी सरकार' को सफल बनाने में जुटी भाजपा
विचार : लोकसभा चुनाव 2019 के लिए मतदान 11 अप्रैल से शुरू हो गया। सात चरणों में चुनाव होने हैं। राजनीतिक दल के साथ चुनाव आयोग भी कार्यक्रम शांति और सफल रूप से कराने के दृढ़ संकल्पित है तो वहीं राजनीतिक दलों ने जीत और सत्ता के लिए जमीन—आसमान एक करने में लगे हैं। इस चुनाव में सिर्फ एक ही बात हो रही है कि राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहेंगे कि जाएंगे। भारतीय जनता पार्टी ने सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों के लिए फिर एक बार मोदी सरकार को अपनी मुख्य चुनावी थीम बनाया है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में अबकी बार मोदी सरकार का नारा इस कदर चल निकला था कि केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार ही नहीं बनी, देश के मतदाताओं ने तीन दशक बाद किसी एक दल के रूप में भाजपा को अकेलेदम भी बहुमत देते हुए मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया। निश्चय ही यह भाजपा के लिए ऐतिहासिक राजनीतिक उपलब्धि थी क्योंकि लगातार 10 साल प्रधानमंत्री रहे ख्यात अर्थशास्त्री की छवि वाले विनम्र मनमोहन सिंह के मुकाबले उसने गुजरात के तीन बार मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था। बेशक वाइब्रेंट गुजरात सरीखे आयोजनों से विकास के गुजरात मॉडल की चर्चा तब तक देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच चुकी थी, लेकिन मोदी की छवि पर गुजरात दंगे भी सवालिया निशान बने हुए थे। यह भी कि भाजपा और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अटल बिहारी वाजपेयी के बाद पार्टी के सबसे कद्दावर नेता माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी की कीमत पर मोदी को चुना था। वही आडवाणी, जो वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री रहे तथा 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपानीत राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी। जिस राम मंदिर आंदोलन या अयोध्या रथयात्रा ने लालकृष्ण आडवाणी को अचानक राजनीतिक हीरो बना दिया था, उसके मुख्य प्रबंधक नरेंद्र मोदी ही थे। कह सकते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी की उंगली पकड़कर राजनीतिक गलियारों में चलना सीखने वाली भाजपा की दूसरी पंक्ति के ही मोदी भी प्रतिभाशाली-संभावनाशील सदस्य रहे। खुद संघ-भाजपा के जानकारों की मानें तो मोदी, वाजपेयी के बजाय आडवाणी के ज्यादा करीब रहे। शायद इसीलिए गुजरात दंगों के बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी, मुख्यमंत्री मोदी को राजधर्म याद दिला रहे थे तो आडवाणी उनके कवच बन गये। इस सबके बावजूद विदेशों में जमा काला धन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपये जमा करने का मोदी का वायदा और अच्छे दिन लाने का नारा जिस तरह मतदाताओं के सिर चढ़कर बोला, वह अभूतपूर्व था। इसे भाजपा का बड़प्पन कहिए या दूरंदेशी कि अकेले दम बहुमत मिल जाने पर भी उसने केंद्र में राजग सरकार का ही गठन किया। हां, उसने सहयोगी दलों को मंत्रालयों के लिए संप्रग शासन जैसी सौदेबाजी और फिर खुलकर खेलने का मौका नहीं दिया, पर खुली छूट तो मोदी ने खुद भाजपा मंत्रियों तक को नहीं दी। तीन दशक के लंबे अंतराल के बाद स्पष्ट बहुमत से बनी सरकार का सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री होने के नाते मोदी से यह अपेक्षा अनुचित हरगिज नहीं कही जा सकती कि वह अपने वायदों पर खरा उतरते और चुनाव प्रचार के दौरान दिखाये गये सपने पूरे करने के प्रयास भी करते। अब जिस तरह सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान, और घोषणापत्र में भी, पिछले चुनावों के वायदों से मुंह चुराते हुए नये नारे और वायदे गढ़ लिये गये हैं, वही इस बात का मुंह बोलता प्रमाण है कि भाजपा और मोदी ने वायदे वफा नहीं किये। विदेशों में जमा काला धन वापस लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख जमा करने को तो खैर जुमला ही करार दे दिया गया, कृषि क्षेत्र की दशा सुधारने के लिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने से भी भाजपा और मोदी सरकार साफ मुकर गयी। वादा हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का था, लेकिन खुद सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि रोजगार सृजन के मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड बेहद निराशाजनक रहा। इसमें नोटबंदी की भूमिका भी कम नहीं रही। काला धन, नकली करंसी और आतंकवाद की फंडिंग रोकने के नाम पर की गयी नोटबंदी के लिए मोदी सरकार और भाजपा चाहे जितनी अपनी पीठ खुद ठोकते रहे हों, लेकिन चुनाव घोषणापत्र में उसका जिक्र तक न होना बताता है कि सच क्या है। एक देश-एक कर के नारे के साथ लागू जीएसटी का सच भी धीरे-धीरे घोटालों के खुलासे के रूप में सामने आ ही रहा है। हम सभी जानते हैं कि जीएसटी लागू हो जाने के बावजूद छोटे ही नहीं, मझोले दुकानदार भी बिना बिल माल बेच रहे हैं और लोग खरीद भी रहे हैं। बिना गहन अध्ययन और पूरी तैयारी के उठाये गये कदमों ने उस आम आदमी की मुश्किलें ही बढ़ायीं, जिसे अच्छे दिन आने का सपना दिखाया गया था। अब अपने बचाव में मोदी सरकार चाहे जो भी तर्क गढ़े, लेकिन सच यही है कि लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के बावजूद राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता सरीखे भाजपा की पहचान से जुड़े परंपरागत मुद्दों पर भी उसका रुख अवसरवादी ही रहा। जिस पीडीपी पर भाजपा कई तरह के आरोप लगाती रही, जम्मू-कश्मीर में सत्ता की खातिर उसी से गठबंधन कर लिया। और जब वह गठबंधन सरकार अपनी नियति को प्राप्त हो गयी तो फिर भाजपा को पीडीपी का असली चरित्र तथा धारा 370 एवं अनुच्छेद 35-ए की सुध आ गयी है। यहां सवाल समर्थन-विरोध का नहीं है, लेकिन राम मंदिर पर भाजपा और उसके समर्थक संत संगठनों की ठीक चुनाव से पहले सक्रियता भाजपा की प्रतिबद्धता की बाबत बहुत कुछ कह देती है। मुद्दों से मुंह चुराने और वायदों पर खरा न उतरने के उदाहरणों की यह फेहरिस्त बहुत लंबी हो सकती है। इसीलिए भाजपा को नये मुद्दे और नारे गढऩे की जरूरत पड़ रही है। उत्तर प्रदेश से लेकर पूर्वोत्तर तक छोटे-छोटे दलों के रूप में नये साथी भी तलाशने पड़े हैं। स्वाभाविक ही यह सब भाजपा के डांवांडोल आत्मविश्वास का संकेतक है जो केंद्रीय सत्ता में आने पर लगभग चार साल चरम पर रहा। अब क्योंकि वर्ष 2014 जैसी मोदी लहर नहीं है और नये वायदों पर पुराने वायदों की बेवफाई से उपजे सवाल भारी पड़ रहे हैं, फिर एक बार मोदी सरकार की राह आसान हरगिज नहीं है। भाजपा की कोशिश जारी है कि मोदी को केंद्र में रखकर उन्हीं के नेतृत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ा जाये क्योंकि विभाजित विपक्ष में कोई सर्व स्वीकार्य और प्रभावी नेता नहीं है। निश्चय ही समकालीन नेताओं में मोदी सबसे प्रभावी और लोकप्रिय नेता हैं, लेकिन ऐसा सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर है। कह सकते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का स्वीकार्य विकल्प फिलहाल नजर नहीं आता, पर कोई भी शून्य हमेशा नहीं रहता। लौह महिला कही गयी इंदिरा गांधी का भी विकल्प उभरा और प्रचंड बहुमत प्राप्त राजीव गांधी का भी। सबसे विद्वान प्रधानमंत्री माने गये नरसिंह राव का भी विकल्प आखिर देवगौड़ा और गुजराल के रूप में उभरा ही। दरअसल मोदी के विकल्प की अनुपलब्धता सीधे-सीधे कांग्रेस की राजनीतिक विफलता का प्रमाण और परिणाम भी है। फिर भी अगर फिर एक बार—मोदी सरकार की राह आसान नजर नहीं आ रही तो इसलिए कि जब लहर न हो तो कम प्रभावी चुनौतियां भी रास्ते का रोड़ा बन जाती हैं। प्रधानमंत्री पद भले ही अरसे से उत्तर प्रदेश को नसीब न हुआ हो, पर दिल्ली की सत्ता का रास्ता अब भी निकलता वहीं से है। 2014 के चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 मिली थीं, जबकि दो उसके सहयोगी दल को। इस बार हालात बदले हुए हैं। एक के बाद एक तीन लोकसभा उपचुनावों में भाजपा को मात देने से उत्साहित सपा-बसपा-रालोद महागठबंधन कर चुनाव लड़ रहे हैं। इनके वोट बैंकों के अंक गणित से 2014 का चुनावी परिदृश्य एकदम न भी उलटे, पर बदलना तो तय है। कांग्रेस महागठबंधन का अंग नहीं है, पर सिर्फ किसी एक ही पक्ष को नुकसान पहुंचायेगी, ऐसा मानना गलत होगा। कुछ महीने पहले ही कांग्रेस ने भाजपा से राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता छीनी है। इन तीनों राज्यों का भी 2014 में भाजपा की केंद्र में ताजपोशी में बड़ा योगदान रहा था, जो इस बार वैसा तो हरगिज नहीं होगा। बिहार में भी, नीतीश कुमार से पुन: दोस्ती के बावजूद, भाजपा के लिए 2014 की पुनरावृत्ति सम्भव नहीं होगी। एक अनुमान के मुताबिक पिछली बार की तुलना में भाजपा की 60-70 लोकसभा सीटें घट सकती हैं। बेशक पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पूर्वोत्तर से भाजपा को भारी उम्मीदें हैं, पर वह उत्तर भारत के घाटे की भरपाई कर पायेगी, इसमें शक है। अभी बहरहाल तमाम तरह की बातें उभर कर सामने आ रही हैं, लेकिन भारतीयों की पहली पसंद अब भी नरेंद्र मोदी ही हैं। लेकिन देश में किसकी सरकार बनेगी यह तो अंतत: 23 मई 2019 को ही पता चल पाएगा।
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