नरेंद्र मोदी का हटाना चाह रहे हैं राजनीतिक लुटेरे
विचार : लोकसभा चुनाव 2019 का दंगल शुरू हो चुका है, जिसमें सभी राजनीतिक दल अपनी—अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। देश का अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इस बात पर खूब चर्चा हो रही है, लेकिन देश की जो प्राथमिक सुविधाएं हैं उस पर किसी की निगाह नहीं जा रही है या निगाह डाली नहीं जा रही। एक तरफ एनडीए का कुनबा है तो दूसरी ओर विपक्ष टुकड़े—टुकड़े में। विरोधी तो कह ही रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को हटाओ, लेकिन नरेंद्र मोदी की जगह कौन लेगा, यह किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है, बस मौके की तलाश में हैं राजनीतिक गिद्ध। भूख से मौत का मसला कोई क्यों नहीं उठाता, क्योंकि कुछ राजनीतिक गिद्ध इन्हीं गरीबों को नोंच—नोंचकर खा रहे हैं। एक बौना सा विमर्श उन्हें तकलीफ का संदेश दे जाता है, लेकिन मसले की गहराई में जाने की कोशिश क्यों नहीं की जाती? सरकारी दफ्तरों से निकली सड़ांध भरी हवा को क्यों नहीं प्रदूषण मुक्त तमगे से नवाजे जाने की कोशिश की जाती। चुनावी माहौल में मुद्दों की कमी नहीं, लेकिन कल तक जो मुद्दे थे, वह आज मौन हैं। घोषणाओं की सरफरोशी में याद नहीं रह गया कि जलियांवाला बाग के नरसंहार का सौ साल पूरा हो चुका है। वह भूल गये नियमों और कायदे की बारिश के तले किस हद तक भ्रष्टïाचार की लपलपाती शैली एक बार फिर परवान चढ़ते हुए चुनौती के रूप में सामने है। आइये तलाशें मसलों को निष्पक्षता के आईने में और समझने की कोशिश करें कि क्यों और कैसे चुनावी रंजिश में मसलों का कत्लेआम खामोशी से जारी है। हालत देखिये कि एनजीटी अचानक फरमान जारी करता है कि गरचे बीड़ी और सिगरेट पीकर उसका बचा टुकड़ा कहीं फेंका तो खैर नहीं। खैरियत के बजबजाते पैबंद लगे सच पर निगाह डालो तो रूह कांप जायेगी। सरकारी तंत्र के जाबांजो की शैली पर सोचने की गुस्ताखी करो तो खुद शर्म से पानी-पानी हो जायेंगे। हालातों का बदतरीन सच देखिये, जिस सूबे में खुली सिगरेट पर रोक ही नहीं बल्कि सार्वजनिक स्थल पर पीने पर पाबंदी है, वहां पर सिगरेट के अवशेष बीनने वाले एनजीटी से सवाल है कि तुम्हारी निगाहों का रहमोकरम लखनऊ के उन गुंचों पर क्यों नहीं पड़ता जहां जहरीली गोमती मुंह चिढ़ाती हुई सामने है, जहां शहर के निकलने वाले कूड़ों को उठाने से ज्यादा जलाने का करतब खुलेआम पेशान होता है। यह वह शहर है, जिसकी दीवानगी में कभी दिलजलों का एहतराम होता था, आज यह जला हुआ शहर मायूसी के बवंडर में छटपटा रहा है। हालत देखिये कि नौ हजार सफाई कर्मचारियों की एक अलग टुकड़ी संविदा पर तैनात है, एजेंसियों को ठेका दिया जा चुका है। गजब की तासीर है भ्रष्टाचार के इन महारथियों की, जिन्होंने एक ही कर्मचारी को सैकड़ों स्थान पर दिखाकर 85 लाख का वारा-न्यारा कर दिया और चुनावी शोर में भ्रष्टाचारी अलख के नामचीन चेहरे आज भी डंके की चोट पर नौकरी को खूबसूरती से अंजाम देते हुए सामने है। सवाल न व्यक्ति से है, न संस्था से और न ही एमजीटी से, सवाल सोच के उन पहरेदारों से है, जिन्होंने ताकीदों की लम्बी फेहरिस्त पेश कर लूट की बेहतरीन श्रृंखला को बिना अवरोध के आगे बढऩे का रास्ता मुहैया कराया। चुनावी करतब में भ्रष्टाचार जैसा शब्द गुम हो गया है, नैतिकता मायने खो चुकी है, सिद्घांत शब्दों का एक लिजलिजा सच बनकर मात्र रह गया है और कुछ इसी तानेबाने में विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपनी नयी सरकार के गठन में जुटा हुआ है। यह बात स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए सब एकजुट हुए हैं, लेकिन मोदी सत्य के रास्ते पर हैं, उन्हें डिगा पाना सबके बस की बात नहीं।
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