मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर महिला उत्पीड़न का आरोप निहायत ही गम्भीर मामला
विचार : न्याय देने वाले न्यायाधीशों पर ही जब महिला उत्पीड़न के आरोप लगेंगे तो न्याय खुद न्याय के लिए तरसेगा। बहरहाल, ताजा और पहला वाकया ऐसा हुआ कि देश की गरिमा को भी कहीं न कहीं ठेंस पहुंची है। एक तरफ जहां हमारे देश सर्वप्रथम मातृशक्ति की पूजा की जाती है, वहीं दूसरी ओर महिला द्वारा शीर्ष न्यायाधीश पर अत्याचार का आरोप, यह दर्शाता है कि महिलाओं को अभी वह आजादी और सम्मान नहीं मिला, जो उन्हें मिलना चाहिए या जिसकी वह हकदार, अधिकारी हैं। उच्चतम न्यायायल में इस मामले की सुनवाई भी हुई। मुख्य न्यायाधीशों ने विगत वर्षों में कई ऐसे कठोर निर्णय लिये, जिसकी जनमानस में आलोचना की गई, जिसमें राम मंदिर मामलेन की सुनवाई अहम है। इसके अलावा व्यभिचार पर लिये गये सर्वोच्च अदालत के फैसले से देश का कई वर्ग असहमत रहा, समलैंगिकता पर न्यायालय ने जो फैसला सुनाया, वह निहायत ही निंदनीय है। भले ही ऐसे फैसले से कुछ वर्ग को अच्छा लग रहा हो, लेकिन समलैंगिकता किसी भी तरह से सही नहीं है। होना तो यह चाहिए कि किसी भी महिला या पुरुष को समलैंगिकता का आभास हो रहा है तो उसे मानसिक चिकित्सक की मदद से या यथासम्भव प्रयास से ऐसे विकार को त्याग देने चाहिए या छोड़ देना चाहिए। बहरहाल, न्याय के लिए आम—अवाम न्यायालय में ही गुहार लगाता है इसलिये न्यायालय को एकदम सत्य और शालीन होना चाहिए। इतना ही नहीं ऐसी क्या मुसीबत आ गयी कि न्यायाधीशों को प्रेस कॉन्फ्रेंस करना पड़ा, इसका मतलब आप में कहीं न कहीं कमी है और आप मीडिया के माध्यम से जनता के प्रति अपनी सफाई दे रहे हैं, जबकि आप जनता के प्रति बिल्कुल जवाबदेय नहीं हैं, जवाबदेय तो नेता लोगा हैं, जो जनता को सब्जबाग दिखाते रहे हैं। हालांकि उच्चतम न्यायालय के अधिकतर बेहतरीन फैसले रहते हैं, जो जनमानस को राहत पहुंचाने में अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन कुछ ऐसी कमियां हैं न्यायालय तंत्र में, जिसमें सुधार की अति आवश्यकता है। वहीं दूसरी ओर निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से चुनाव चंदे में पारदर्शिता को लेकर उठायी जा रही आशंकाओं का निराकरण होगा जो कि पारदर्शिता की दिशा में स्वागतयोग्य कदम है। शीर्ष अदालत ने राजनीतिक दलों को निर्देश दिया है कि वे 30 मई तक बंद लिफाफों में चुनाव आयोग को चुनावी चंदा देने वाले स्रोत की जानकारी दें। राजनीतिक दल चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाते हैं और चंदे के स्रोत पर जैसे पर्दा डालने का प्रयास करते हैं, वह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम का उल्लंघन ही है। सरकार चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर जिस चुनावी बांड व्यवस्था को लेकर आई थी, उसके निहितार्थों को लेकर चुनाव आयोग पहले से ही शंका जताता रहा है। इसमें बैंक के जरिये बांड खरीदकर मोटा चंदा देने वालों की पहचान तो होती है मगर यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि किस राजनीतिक दल को चंदा दिया गया है। खबरें हैं भाजपा को ही चुनावी बांडों से सबसे ज्यादा फायदा हुआ। इस नई व्यवस्था को चुनाव आयोग तथा एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स चुनाव सुधारों के लिए प्रतिगामी कदम मानते रहे हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड पर रोक तो नहीं लगायी मगर उसमें पारदर्शिता लाने की पहल जरूर की है। सरकार की दलीलें—लोकतंत्र में चुनाव सुधार पक्षधरों के गले नहीं उतरती। हास्यास्पद ही है कि कोर्ट में एटॉर्नी जनरल कहे कि जनता का इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा कहां-कहां से मिला है। देश में चुनावी चंदे के जरिये काला धन खपाने और जीतने वाले दल की सरकार से प्रत्युत्तर में प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ उठाने के आरोप लगते रहे हैं। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि न्यायाधीश भी इस देश का एक नागरिक है, वह भी मतदान करता है और मतदान के दौरान उसका कहीं न कहीं किसी राजनीतिक दल की तरफ झुकाव तो रहता ही है, नहीं तो वोट आखिर किसे देगा, देगा तो राजनीतिक दल को ही, इसी तरह न्याय करने में भी न्यायाधीशों का किसी न किसी तरफ झुकाव हो सकता है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। निष्पक्ष, निडर, न्यायप्रिय लोग ही असली न्यायाधीश हैं, चाहे वह जिस वर्ग, क्षेत्र से आते हों।
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