दीन-दु:खियों की सेवा
बोधकथा : महर्षि विद्रुथ ने जीवनभर दीन-दु:खियों की सेवा की। जब उनका अंत समय आया तो उनके जीवनभर के कार्यों का लेखा-जोखा किया गया। लिहाजा उन्हें स्वर्ग में पहुंचाने का आदेश हुआ। स्वर्ग में उच्च कोटि की सुविधाएं थीं। किंतु महर्षि विद्रुथ जल्द ही उस माहौल में उद्विग्न होने लगे। एक दिन देवराज से एकांत में भेंट होने पर उन्होंने अपनी भावना उनके समक्ष व्यक्त की। उनकी बात सुनकर देवराज ने विद्रुथ से कहा-महात्मन, यहां सब कुछ तो है। आपको किस बात का कष्ट हो रहा है? विद्रुथ ने कहा-देवराज, मैं स्वर्ग की व्यवस्थाओं पर उंगली नहीं उठा रहा, लेकिन मुझे अपने मन की शांति के लिए जो चाहिए, वह आपके लोक से परे की वस्तु है।
दरअसल मैंने जीवनभर दीन-दु:खियों की सेवा की है और उसी में मुझे खुशी मिलती है। यह सब यहां स्वर्ग लोक में संभव नहीं। आप मुझे पुन: मृत्यु लोक में भेज दें। देवराज इंद्र ने सभी देवताओं के समक्ष यह घोषणा की कि महर्षि विद्रुथ को तप: लोक में भेजा जा रहा है। यह सुनकर एक देवता ने पूछा-देवराज, क्या यह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है? यह कहां पर है? तब देवराज ने कहा-यह सर्वश्रेष्ठ लोक पुण्यगर्भा पृथ्वी पर है, जहां मानव रहते हैं। जहां जन्म लेने के लिए कई बार हम भी तरसते हैं। महर्षि विद्रुथ ने स्वयं वहां जाने की इच्छा व्यक्त की है, इसलिए उन्हें भेजा जा रहा है।
दरअसल मैंने जीवनभर दीन-दु:खियों की सेवा की है और उसी में मुझे खुशी मिलती है। यह सब यहां स्वर्ग लोक में संभव नहीं। आप मुझे पुन: मृत्यु लोक में भेज दें। देवराज इंद्र ने सभी देवताओं के समक्ष यह घोषणा की कि महर्षि विद्रुथ को तप: लोक में भेजा जा रहा है। यह सुनकर एक देवता ने पूछा-देवराज, क्या यह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है? यह कहां पर है? तब देवराज ने कहा-यह सर्वश्रेष्ठ लोक पुण्यगर्भा पृथ्वी पर है, जहां मानव रहते हैं। जहां जन्म लेने के लिए कई बार हम भी तरसते हैं। महर्षि विद्रुथ ने स्वयं वहां जाने की इच्छा व्यक्त की है, इसलिए उन्हें भेजा जा रहा है।
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