​निरर्थक भय त्याग दो

बोधकथा : अपने बुरे स्वभाव के लिए राजा महापिंगल अपनी रानियों, कर्मचारियों और प्रजा के बीच बहुत ही कुख्यात था। कुछ समय बाद वृद्ध हो चले राजा का निधन हो गया और युवराज ने राज्य की कमान संभाली। नगर का हर प्राणी प्रसन्न था कि एक पापी का अंत हो गया और युवराज के रूप में एक धर्मपरायण और कर्मशील राजा मिला है। दरबार में प्रवेश करते हुए युवराज ने देखा कि एक द्वारपाल हिचकियां लेकर रो रहा है। राजा समेत सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने उससे पूछा-मेरे पिता के निधन पर सब हर्षित हैं मगर तुम रो रहे हो। क्या वह तुम्हें अत्यंत प्रिय थे। द्वारपाल सुबकते हुए बोला-मैं आपके पिता के मरने पर नहीं रो रहा हूं। आपके पिता द्वार से आते-जाते मेरे सिर पर मुक्के से दो बार प्रहार किया करते थे। अब वह ऊपर जाकर यमराज के सिर पर भी प्रहार करेंगे। कहीं यमराज घबराकर उन्हें यहां वापस ना भेज दें, मैं इसीलिए रोता हूं। तब राजा ने उसको आश्वासन देते हुए कहा कि एक बार मरने के बाद वही योनि पुन: नहीं मिलती, इसलिए तुम भी अपना निरर्थक भय त्याग दो।

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