युवा न्यायाधीशों को मिलेगा मौका
विचार। विधि आयोग तीन बार अपनी पहली, आठवीं और 116 वीं रिपोर्ट में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (एआईजेएस) के गठन की सिफारिश कर चुका है। यही वजह है कि कोरोना महामारी से प्रभावित न्यायिक व्यवस्था को गति देने के लिए अब केन्द्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में न्यायिक सेवा के स्वरूप को बदलने की तैयारी पर विचार शुरू कर दिया है। एआईजेएस के गठन से सर्वोच्च, उच्च न्यायालय, और जनपद स्तर पर अधिक युवा न्यायाधीशों को मौका मिलेगा। अनुच्छेद-312 में यह प्रावधान है कि संसद विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित कर एक नई अखिल भारतीय सेवा की स्थापना कर सकती है। उपरोक्त अनुच्छेद के तहत इस सेवा की स्थापना करने के लिये 1977 में संविधान संशोधन किया गया था। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा अवश्य ही न्यायपालिका को अधिक जवाबदेह, दक्ष, पेशेवर एवं पारदर्शी बनाकर न्याय की गुणवत्ता एवं पहुँच में वृद्धि करेगी। नव नियुक्त न्यायाधीशों को स्थानीय भाषा सिखाकर अथवा अधीनस्थ न्यायपालिका के न्यायाधीशों का केवल राज्य के अंदर ही स्थानांतरण करने जैसे प्रावधानों से राज्यों की चिंताओं को दूर किया जा सकता है ताकि राज्य एवं उच्च न्यायालय इस सेवा की स्थापना को सहर्ष स्वीकार करें। शीर्ष अदालत ने पिछले साल यानि नवम्बर 2020 में ही केंद्र सरकार को कहा था कि वह एक ‘नेशनल टिब्यूनल कमीशन’ बनाये जो न्यायाधिकरणों में नियुक्ति और उनके कामकाज के लिए एक स्वतंत्र संस्था के रूप में काम करे और उसकी प्रशासनिक आवश्यकताओं का ध्यान रखे, लेकिन लगभग दस महीने बीत जाने के बाद भी इस मामले पर केंद्र सरकार की ओर से कुछ विशेष कार्य नहीं किया गया। यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय ने देश के अधिकरणों में खाली पड़े पदों को भरने के मामले में सरकार के प्रति बीते सितम्बर माह में नाराजगी जताई थी। यहां बता दें कि मोदी सरकार की सभी क्षेत्रों पर नजर है, आवश्यक प्राथमिक कार्यों के तहत भाजपा की मोदी सरकार एक-एक समस्याओं के समाधान में जुटी है। केंद्र की मोदी सरकार की आलोचना करने वालों को यह कतई नहीं भूलना चाहिए, दो साल कोरोना के लपेटे में चला गया। हालांकि अर्थव्यवस्था संभालते हुये मोदी सरकार न्यायपालिका पर भी ध्यान दे रही है। अधीनस्थ न्यायपालिका में मौजूदा समय में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के 21320 स्वीकृत पद हैं, जिनमें से लगभग 25 फीसदी रिक्त ही हैं। लम्बित अदालती मामलों में 81 प्रतिशत से अधिक जिला और अधीनस्थ अदालतों में हैं। यानी कि प्रत्येक न्यायाधीश के पास औसतन 1 हजार, 350 मामले लम्बित हैं, जो प्रति माह 43 मामलों को मंजूरी देता है। वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर लगभग 17.72 फीसदी जज हैं। वधि आयोग ने अपनी 120 वीं रिपोर्ट में सिफारिश की है कि प्रति दस लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या पचास होनी चाहिए। इसके लिए स्वीकृत पदों की संख्या बढ़ाकर तीन गुना करनी होगी क्योंकि आज भी अगर पूरे भारत के न्यायालयों (निचली) में लम्बित मामलों पर ध्यान दिया जाए तो यह संख्या करोड़ों में नजर आती है।
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