शारीरिक परिश्रम से नहीं डरते कर्मठ किसान
विचार। दो बैलों की जोड़ी से जुताई का कोई मुकाबला नहीं है। आज भी देश के कई जगहों पर दो बैलों की जोड़ी और हल-जोठ-सरावन की हनक बरकरार है। अधिकतर जगहों पर आज भी बैलकोल्हू चलता है, अच्छे-अच्छे कोल्हुआर बैलों के सहारे उद्यम कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अक्सर ठंडी के दिनों में बैलगाड़ी से कोल्हुआर से बना गुड़ व चीनी बेंचते हैं, जो स्वाद में निहायत बेमिसाल रहता है। स्वास्थ्य के लिहाज से भी काफी बेहतर रहता है। देश के कई किसान ट्रैक्टर की जोताई की बजाय बैलों की जोड़ी से जोताई करना बेहतर समझते हैं। एक समय वह था जब हर खेतिहर किसान ही नहीं बल्कि खेतिहर मजदूर भी एक जोड़ी बैल जरूर रखता था। वर्ष में एक बार उनकी ही नहीं बल्कि हल-जोठ की भी पूजा होती थी। देशी हल की जोताई से खेत में जगह नहीं छूटती थी। खेत ऊंचा-नीचा नहीं होता था जबकि ट्रैक्टर की जोताई करने पर खेत ऊंचा हो जाता है। फसल बोने पर बीच में लाइन बन जाती है और बीज की बरबादी होती है। खेत के कोन किनारे ट्रैक्टर से नहीं बन पाते हैं। बैलों से खेती हर तरह से लाभदाय है, इसके पीछे किसानों के तर्क को कृषि वैज्ञानिक कुछ हद तक सही मानते हैं। हालांकि कृषि वैज्ञानिक हल से खेत की जोताई को ट्रैक्टर की जोताई से बेहतर बताते हैं, लेकिन समय और परिश्रम अधिक लगने की बात पर वे अत्याधुनिक औजारों से खेती करने की सलाह देते हैं। मतलब साफ है, जहां पुराने ख्याल के किसान हल, बैल से खेती को बेहतर बताते हैं। वहीं कृषि विशेषज्ञ समय के हिसाब से अत्याधुनिक औजारों से खेती करने की सलाह देते हैं। ट्रैक्टर्स सीजन के हिसाब से खेतों में चलती है। ट्रैक्टर एक बार में ही खेत को उलट-पुलट कर बीज की बोआई कर देते हैं। जबकि हल से जोतने पर 8 दिन के बाद उन्हें दोबारा खेत जोतने आना पड़ता है। इस दौरान जोती गई खेत सूख जाती है और छोटे-छोटे घास उग आते हैं। दोबारा उसकी जोताई करने पर घास की जन्मी नई पौध पुन: खेत में ही मिल जाती है, जिससे खेत की ताकत बढ़ती है। जबकि हल एक समान खेतों में चलते हैं। जबकि ट्रैक्टर से जोतने पर खेत कहीं अधिक गहरा तो कहीं कम गहरा हो जाता है और खेत के समतलीकरण पर प्रभाव पड़ता है। ट्रैक्टर से खेत जोतने में 1 हजार रुपए प्रति 1 घंटे में लगता है। एक एकड़ जमीन में कम से कम 3 घंटे में ट्रैक्टर द्वारा खेत की जोताई होती है, जिसकी लागत 3 हजार रुपये लग जाते हैं। इसके बाद बीज, खाद, पटवन सहित अन्य सामग्री से खेती की लागत काफी बढ़ जाती है। जबकि बैल के एक जोड़े की खरीद में 50 से 60 हजार रुपए की लागत लगते हैं। जिससे एक से दो साल तक खेतों की जुताई कर ली जाती है। फिर बैल को बेचने पर लगभग इतनी ही रकम फिर प्राप्त हो जाती है, यानि किसान की पूंजी सुरक्षित रहती है। किसान को सिर्फ शारीरिक परिश्रम ही खर्च करना पड़ता है, जो किसान शारीरिक परिश्रम से डरते हैं। वे ट्रैक्टर से खेती करते हैं। जो कर्मठ किसान हैं, शारीरिक परिश्रम से नहीं डरते। इसीलिए हल-बैल से खेत जोतते हैं। कई किसान ऐसे हैं, जो हल से ही खेती करते हैं। लेकिन इन दिनों जानवरों में एक बीमारी फैली हुई है, जिससे कुछ बैलों की मौत हुई है, इससे किसानों ने अपने बैलों को बेच दिया। कार्तिक महीने के समय ट्रैक्टर से ही किसान जोत कर बीज की बुआई कर लेते हैं। चूंकि रबी फसल 20 नवम्बर से 10-12 दिसम्बर तक ही कर लेने की मजबूरी होती है। यानि 8 से 10 दिनों में ही खेती कर लेनी होती है। जिसके लिए लोग ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं, लेकिन फागुन के महीने में बैल काफी मददगार होता है। फागुन से सावन तक धीरे-धीरे खेती की जाती है, जिसमें मूंग की बुआई, घसेर की बुआई और ढाईचे से फसल की बुआई होती है। जो धीरे-धीरे की जाती है। जिसके लिए हल बैल का उपयोग करना ज्यादा लाभकारी होता है। बैल के रहने से गोबर प्राप्त होता है, जो जलावन का एक बढिय़ा विकल्प के रूप में ग्रामीण इलाके में काम आता है। साथ ही जैविक खाद्य बनती है। वहीं बैल के खेतों में घूमने के दौरान उनके मल मूत्र त्यागने से भी खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। छोटे-छोटे खेतों के लिये हल लाभकारी है। ग्रामीण इलाके में छोटे-छोटे खेत ही किसानों के पास अब बचे हैं, जिसमें छोटी-छोटी क्यारियां होती हैं, जिसे ट्रैक्टर से जोतना सम्भव नहीं होता है। ऐसे में हल बैल छोटे-छोटे क्यारियों और खेतों की अच्छे से जोताई कर देते हैं, जो काफी लाभदायक होते हैं। कृषि विशेषज्ञ भी बताते हैं कि हल बैल से की गई खेती से खेतों की उर्वरा शक्ति काफी हद तक बनी रहती है। खेत की ऊपरी तल पर ही बीज के पौधे सहित खाद बीज मौजूद रहते हैं, जिससे फसल को अधिक लाभ पहुंचता है। साथ ही जानवरों के मल मूत्र खाद के रूप में खेतों काफी लाभदायक होता है। छोटे-छोटे खेतों में हल से जोताई करने पर उसके हर कोने की सही से जोताई भी हो जाती है, लेकिन अत्याधुनिक औजार से कम समय में खेती सम्पन्न हो जाती है। कई अत्याधुनिक कृषि औजार के बाजार आ जाने के बावजूद भी जिले के सैकड़ों किसान आज भी हल-बैल की मदद से खेतों की जोताई और फसलों की बोआई करते दिख रहे हैं। हल जोतने के पीछे किसानों की अपनी अलग गणित और विज्ञान है, जहां वे हल से खेत को जोतने में कृषि लागत में बचत होने और उपज के अधिक होने का दावा भी पेश करते हैं। वहीं वे खेतों का वैज्ञानिक बनकर खेतों की उर्वरा शक्ति को भी अधिक दिनों तक बरकरार रहने की भी बातें बताते हैं। देश के कई जिलों में किसान हर हाल में अपनी पुरानी किसानी प्रथा को पुनजीर्वित करने की कोशिश में जुटे हुए हैं। इसमें अच्छी बात ये है कि अब इस काम में किसानों को पढ़े-लिखे बेटे और बेटियों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है कि पुरानी परम्परा में ही उन्नति है। गन्ने की गुड़ाई में बैलों का उपयोग हो रहा है, बैल कल्टीवेटर खींचते हैं। इससे गन्ने की पौध नहीं कटती है। रासायनिक खादों से खेतों की उर्वरा शक्ति घट रही है, लेकिन बैल पालने से खेती के लिए गोबर की खाद उपलब्ध हो रही है। भारत में बैल खेती के लिए हल में जोते जाने वाला एक महत्वपूर्ण पशु रहा है। मानव विकास में बैलों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कृषि युग में बैल ने जहां खेतों को खोदा वहीं उसने आवागमन के साधन के रूप में गाड़ी को खींचा। इसी कारण बैल की विशेषता शक्ति-सम्पन्नता के साथ कर्मठता भी मानी जाने लगी। बैल मनुष्य की जो सेवा करता है उसका उसे कोई मेहनताना नहीं मिलता है। आमतौर पर खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला बताया गया है। इसके अलावा वह बल और शक्ति का भी प्रतीक है। बैल को मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला प्राणी भी माना जाता है। यह सीधा-साधा प्राणी जब क्रोधित होता है तो सिंह से भी भिड़ लेता है। यही सभी कारण रहे हैं जिसके कारण भगवान शिव ने बैल को अपना वाहन बनाया। शिवजी का चरित्र भी बैल समान ही माना गया है। जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ है उसी तरह बैलों में नंदी श्रेष्ठ है। बैल के कई रूप हैं, उनमें से नंदी बैल प्रमुख है। बैल भगवान शिव की सवारी है। वृषभ राशि का प्रतीक भी पवित्र बैल है। भगवान शिव के प्रमुख गणों में से एक है नंदी। भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय भी शिव के गण हैं। मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में किताब कामशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र में से कामशास्त्र के रचनाकार नंदी ही थे।
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