जनजातीय क्राफ्ट मेले ने लोगों का मन मोहा, अद्भुत कला प्रदर्शनी
विचार। मानव सभ्यता की जड़ आदिवासी ही हैं, यह कहना कतई गलत नहीं है। मानव सभ्यता नदियों के किनारे जंगलों में ही शुरू हुई। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला वनों से ढका हुआ है। यह भारत में उपस्थित जनजातियों समुदाय का बड़ा हिस्सा यहाँ निवासरत है। बस्तर शिल्प की दीवार दुनिया भर में कला उत्साही और कला के जानकारों का ध्यान आकर्षित करते हैं। बस्तर कलाकृतियों आमतौर पर जनजातीय समुदाय की ग्रामीण जीवनशैली को दर्शाती है। छत्तीसगढ़ कला और संस्कृति के लिहाज से समृद्ध है, इसमें भी खासतौर पर आदिवासियों की हस्तकला और शिल्प के लिए लोगों की दीवानगी देखते ही बनती है। छत्तीसगढ़ जनजातीय क्राफ्ट मेला के तीसरे दिन बड़ी संख्या में लोग जनजातीय क्राफ्ट मेला में पहुंचे और अपने पसंद की वस्तुओं की खरीदी की। इस दौरान गोदना और ढोकरा शिल्प, बांस कला जैसी पुरानी कलाओं को नए अंदाज में देखकर युवा खासा उत्साहित नजर आए। छत्तीसगढ़ शासन के आदिम जाति कल्याण विभाग एवं जनजातीय कार्य मंत्रालय नई दिल्ली के सहयोग से आयोजित छत्तीसगढ़ जनजातीय क्राफ्ट मेले में इस बार नयापन देखने को मिला। बेलमेटल, बांस और ढोकरा शिल्प के माध्यम से डेकोरेटिव आइटम्स में की गई आदिवासी कलाकारों ने अपनी संस्कृति को दिखाने का प्रयास किया है, जो शहरी क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलता। साड़ी और चादरों में गोदना आर्ट के डिजाइन ने लोगों का मन मोहा। बस्तर के सुगंधित चावल की भी खरीददारी लोगों ने की। गोदना कला प्राचीन संस्कृति का हिस्सा रही है, गोदना कला शरीर में गुदवाया जाता है लेकिन यहां साड़ी, सलवार-कुर्ता, चादर, गमछे में भी गोदना कला की ओर लोग आकर्षित हुये। मध्य प्रदेश के शहर इंदौर में बड़ी संख्या में लोग छत्तीसगढ़ की कला और विशेषकर बस्तर आर्ट के दीवाने हैं। देश के दूसरे हिस्सों में भी छत्तीसगढ़ी जनजातीय क्राफ्ट मेला जैसे आयोजन करने चाहिए। इसके अलावा कई चीजें ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं लेकिन ऐसे आयोजनों के जरिए जहां पैसा सीधे निर्माता कलाकार तक पहुंचता है तो वहीं कद्रदान ग्राहक और हस्तशिल्प के कलाकार आपस में रूबरू होते हैं। महिला कलाकारों का आत्मविश्वास देखकर लोगों में नयी ऊर्जा आयी है। यह वास्तव में अभूतपूर्व अनुभव था जब सुदूर ग्रामीण महिलाएं पुरुषों को भी बेहिचक अपनी शिल्पकला की बारीकियों के बारे में बता रही थीं। लोगों ने जनजातीय क्राफ्ट की खूबसूरती को सराहा। छत्तीसगढ़ जनजातीय क्राफ्ट मेला के तीन दिवसीय आयोजन में कुल 61 स्टाल लगाए गए थे, जिसमें से 36 स्टाल का संचालन महिला कलाकारों द्वारा किया गया। जनजातीय कलाकार धातु की पुरानी प्रक्रियाओं के माध्यम से, जीवन, प्रकृति और देवताओं के अनूठे दृश्य को लोहे में उकेरते हैं । उनकी प्रक्रिया सरल है, इसमें मूल रूप से धातु को फोर्जिंग और हथौड़ा द्वारा रूप देना है। बस्तर अंचल के हस्तशिल्प, चाहे वे आदिवासी हस्तशिल्प हों या लोक हस्तशिल्प, दुनिया-भर के कलाप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट करने में सक्षम रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि इनमें इस आदिवासी बहुल अंचल की आदिम संस्कृति की सोंधी महक बसी रही है। यह शिल्प-परम्परा और उसकी तकनीक बहुत पुरानी है। देवी त्यौहार, तीज त्यौहार, चैतराई, आमाखानी, अकती, बीज खुटनी, हरियाली, इतवारी, नयाखाई आदि बस्तर के आदिवासियों के मुख्य त्यौहार हैं। आदिवासी समुदाय एकजुट होकर बूढ़ादेव, ठाकुर दाई, रानीमाता, शीतला, रावदेवता, भैंसासुर, मावली, अंगारमोती, डोंगर, बगरूम आदि देवी देवताओं को पान फूल, नारियल, चावल, शराब, मुर्गा, बकरा, भेड़, गाय, भैंस, आदि देकर अपने-अपने गांव-परिवार की खुशहाली के लिए मन्नत मांगते हैं। वहीं दूसरी ओर पिथोरा पेंटिंग में मुख्य रूप से तीन लेयर होती है। इसमें दीवार के शीर्ष भाग में सूर्य एवं चांद बनाये जाते हैं। मध्य भाग में पशु, पक्षी एवं देवी देवताओं के चित्र बनाये जाते हैं और सबसे नीचे के हिस्से में आदिवासियों की दैनिक दिनचर्या को दर्शाया जाता है। इन पेंटिंग को बनाने के लिए चमकीले रंगों का उपयोग किया जाता है। इन पेंटिंग्स में सफेद डॉट्स की सहायता से ऑउटलाइन बनाई जाती है। पेंटिंग को कपड़े पर बना कर होम डेकोर या गिफ्ट आइटम भी बनाये जा सकते हैं। उधर, बस्तर की आदिवासी परंपरागत कला कौशल प्रशिद्ध है। जनजातीय कलाओं में प्रमुख बस्तर कला है जो भारत के बस्तर-क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा प्रचलित है और अपने अद्वितीय कलाकृतियों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। बस्तर के आदिवासी समुदाय अपनी इस दुर्लभ कला को पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित करते आ रहे हैं, लेकिन प्रचार के अभाव में यह केवल उनके कुटीरों से साप्ताहिक हाट बाजारों तक ही सीमित है। उनकी यह कला बिना किसी उत्कृष्ट मशीनों के उपयोग के रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले उपक्रमों से ही बनाये जाते हैं। बस्तर के कला कौशल को मुख्य रूप से काष्ठ कला, बाँस कला, मृदा कला, धातु कला में विभाजित किया जा सकता है। काष्ठ कला में मुख्य रूप से लकड़ी के फर्नीचरों में बस्तर की संस्कृति, त्योहारों, जीव जंतुओं, देवी, देवताओं की कलाकृति बनाना, देवी देवताओं की मूर्तियाँ, साज सज्जा की कलाकृतियाँ बनायी जाती है। बांस कला में बांस की शीखों से कुर्सियां, बैठक, टेबल, टोकरियाँ, चटाई, और घरेलू साज सज्जा की सामग्रियां बनायी जाती हैं। मृदा कला में, देवी-देवताओं की मूर्तियां, सजावटी बर्तन, फूलदान, गमले और घरेलू साज-सज्जा की सामग्रियां बनायी जाती हैं। धातु कला में ताम्बे और टिन मिश्रित धातु के ढलाई किये हुए कलाकृतियाँ बनायी जाती हैं, जिसमें मुख्य रूप से देवी देवताओं की मूर्तियाँ, पूजा पात्र, जनजातीय संस्कृति की मूर्तियाँ प्रमुख हैं।
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