स्वयंसेवकों ने विदेशी घोष वाद्यों को स्वदेशी नाम दिया, बनाई नयी धुन

1982 में भारत में सम्पन्न हुए एशियाड गेम्स के उद्घाटन समारोह में भारतीय नेवी दल ने स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित रचना शिवराज का वादन कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

विचार। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक शानदार संगठन है, जो देश का गौरव बढ़ाने का कार्य करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक ‘देश नहीं झुकने दूंगा’, वाले सूत्र पर काम करता है। सभी के साथ आत्मीय लगाव रखने वाले संघ की शाखा में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं, जो निहायत ही लुभावना होता है। सही मायने में कहा जाये तो संघ माने शाखा, शाखा माने कार्यक्रम, कार्यक्रम यानि खेल, समता, योग, आसन, सूर्य नमस्कार, गीत, सुभाषित, अमृतवचन, प्रार्थना तो मुख्य हैं। इसके अलावा कई कार्यक्रम हैं, जो संघ के स्वयंसेवक बड़ी लगन से करते हैं, सहज गिनाया नहीं जा सकता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में शारीरिक कार्यक्रमों का बड़ा महत्व है, शाखा पर खेल के साथ ही पथ संचलन का अभ्यास भी होता है, जब स्वयंसेवक घोष (बैंड) की धुन पर कदम मिलाकर चलते हैं, तो चलने वालों के साथ ही देखने वाले भी झूम उठते हैं। संघ में घोष का महत्व ठीक उसी प्रकार से है जैसे वीर के माथे पर तिलक। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक सृजनात्मक व रचनात्मक कार्य हैं, जो उसके स्वयंसेवकों की कठिन साधना से सिद्ध हुए हैं। जिस तरह दंड प्रदर्शन कौशल व वीरता का संकेत देता है उसी तरह संघ का घोष-वादन भी स्वयंसेवक में नई स्फूर्ति पैदा करता है। आखिर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में घोष का कार्य कैसे शुरू हुआ? शाखा में पहले सिर्फ व्यायाम व सामान्य चर्चा ही होती थी फिर धीरे-धीरे शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम होने लगे। इसी क्रम में शारीरिक व्यायाम में समता और संचलन का अभ्यास शुरू हुआ। शारीरिक विभाग ने इस बात पर विचार किया कि संचलन के साथ घोष वाद्य का भी प्रयोग किया जाए। संघ स्थापना के केवल दो साल बाद 1927 में शारीरिक विभाग में घोष को भी शामिल किया गया। संघ में घोष की शुरुआत आसान नहीं था, उस दौरान दो चुनौतियाँ विशेष थीं-पहला कि घोष वाद्य, जो संचलन में काम आ सकें वे महंगे थे और सेना के पास हुआ करते थे। दूसरा यह कि उसके कुशल प्रशिक्षक भी सैन्य अधिकारी ही होते थे। चूँकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास न तो इतना धन था कि वाद्य यंत्र खरीदे जा सकें, लेकिन स्वयंसेवकों ने जो ठान लिया उसे किया। उस समय सैन्य अधिकारियों को केवल सेना के घोष-वादकों को ही प्रशिक्षित करने की अनुमति थी। इस चुनौती से निबटने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के परिचित बैरिस्टर गोविन्द राव देशमुख के सहयोग से सेना के एक सेवानिवृत बैंड मास्टर के सहयोग से स्वयंसेवकों को घोष वाद्यों का प्रशिक्षण दिलाया गया। वंशी के लिए पुणे के हरिविनायक दात्ये, शंख वादन के लिए मार्तंड राव आदि स्वयंसेवकों ने शंख, वंशी, आनक जैसे वाद्य यंत्रों पर अभ्यास प्रारम्भ किया। पाश्चात्य शैली के बैंड पर उनके ही संगीत पर आधारित रचनाएँ बजाने में भारतीय मन को वैसा आनंद नहीं आया जैसा कि आना चाहिए था। तब स्वयंसेवकों का ध्यान इस बात पर गया कि हमारे देश में हजारों वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य और धनुर्धारी अर्जुन ने देवदत्त बजाकर विरोधी दल को भयभीत कर दिया था। सर्वविदित है कृष्ण के समान वंशी वादक संसार में कोई हुआ नहीं, अत: हमें इन वाद्यों पर ऐसी रचनाएँ तैयार करनी चाहिए जिनमें अपने देश की नाद परम्परा की महक हो। इस प्रकार राग केदार, भूप, आशावरी में पगी हुई रचनाओं का उद्भव हुआ। स्वयंसेवकों ने घोष वाद्यों को भी स्वदेशी नाम देकर उन्हें अपनी संगीत परम्परा के अनुरूप बनाकर उनका भारतीयकरण किया। इस क्रम में साइड ड्रम को आनक, बॉस ड्रम को पणव, ट्रायंगल को त्रिभुज, बिगुल को शंख आदि नाम दिए गए जो कि ढोल, मृदंग आदि नामों की परम्परा में ही समाहित होते हैं।  समाज इस बात पर गर्व कर सकता है कि सेना के सेवानिवृत्त घोष वादकों का सहयोग लेने वाला संघ-घोष अपने स्वयंसेवकों के अथक परिश्रम से इस अवस्था में पहुँच गया कि 1982 में भारत में संपन्न हुए एशियाड गेम्स के उद्घाटन समारोह में भारतीय नेवी दल ने स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित रचना शिवराज का वादन कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसे विश्व स्तर पर प्रसारित प्रथम घोष रचना भी कहा जा सकता है। इतना ही नहीं संघ के स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित करीब 40 रचनाओं का वादन नेवी बैंड द्वारा किया जा चुका है। आज संघ में घोष वादकों की संख्या लगभग 70 हजार के आसपास है। घोष की विकास यात्रा में प्रथम अखिल भारतीय घोष प्रमुख सुब्बू श्रीनिवास का नामोल्लेख भी अत्यंत समीचीन होगा। घोष विभाग के विकास में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले सुब्बू श्रीनिवास का जन्म 1940 को मैसूर में एक सामान्य दुकानदार बी.जी.सुब्रह्मण्यम व शुभम्म के घर में हुआ। सात भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे सुब्बू। अपने बड़े भाई अनंत के साथ 1952 में सुब्बू भी शाखा जाने लगे। उनकी शाखा में ही बड़ी कक्षा में एक मेधावी छात्र श्रीपति शास्त्री भी आते थे, जो आगे चलकर संघ के केन्द्रीय अधिकारी बने। उनके सहयोग से सुब्बू परीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे। 1962 में कर्नाटक प्रांत प्रचारक यादवराव जोशी की प्रेरणा से सुब्बू प्रचारक बने। सुब्बू ने कई वर्षों तक सतत प्रवास करके घोष वर्ग और घोष शिविरों के माध्यम से पूरे देश में हजारों कुशल घोष वादक तैयार किये। घोष वादकों में निपुणता और दक्षता की दृष्टि से अखिल भारतीय घोष शिविर आयोजित किये जाने लगे। सुब्बू जी घोष के प्रति इतने समर्पित रहे कि सतत प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा किन्तु अंतिम साँस तक बिना रुके, बिना थके वे ध्येय मार्ग पर बढ़ते रहे। परम्परागत वाद्य शंख, आनक और वंशी से शुरू हुई घोष यात्रा आज नागांग, स्वरद आदि अत्याधुनिक वाद्यों पर मौलिक रचनाओं के मधुर वादन तक पहुँच गई है। घोष वादन में मौलिक और भारतीय नाद परम्परा को समृद्ध करने की यात्रा प्रथम रचना गणेश से आरम्भ होकर लगभग अद्र्धशतक पूर्ण कर निरंतर बढ़ती जा रही है। भारतीय सेना के पारम्परिक सैन्य बैंड की तर्ज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घोष बैंड भी सेवकों को अनुशासन के सूत्र में बांधता है। शाखा की ट्रेनिंग से लेकर संघ के तमाम कार्यक्रमों में बेहतरीन अनुशासन का प्रदर्शन इसी बैंड द्वारा तैयार की गई धुनों के साथ होता है। भारतीय पारम्परिक रागों पर आधारित घोष के धुन और राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत गीत इस बैंड के जुड़े कलाकार स्वयं तैयार करते हैं। इन कलाकारों में कक्षा पांचवीं के छात्र से लेकर शिक्षक, प्रोफेसर, प्रोफेशनल्स और कुछ पूर्व सैनिक भी शामिल हैं। 40 के दशक में संघ घोष ने अंग्रेजी वाद्य यंत्रों में सरगम फिट किया और भारतीय रागों पर आधारित धुन तैयार किए। बांसुरी, बिगुल, साइड ड्रम और यहां तक कि सैक्सो फोन जैसे अंग्रेजी वाद्य यंत्रों से भी कलाकार भारतीय राग बजाते हैं। इनमें भूप राग, देश कार, राग केदार आदि शामिल है। उपर्युक्त बातें संघ के घोष पर एक छोटा सा सार है, संघ के घोष के बारे में या शाखा के बारे में वृहद जानकारी के लिये शाखा जाकर ही समझा जा सकता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में स्वयं स्वयंसेवक ही नहीं बता पायेगा कि शाखा पर क्या मिलता है और क्या-क्या होता है, शाखा की व्याख्या नहीं, बल्कि शाखा को महसूस किया जा सकता है, जैसे वायु हमारी प्राण है, लेकिन हम वायु को देख नहीं पाते, ठीक इसी तरह  शाखा को परिभाषित नहीं किया जा सकता, सिर्फ महसूस किया जा सकता है, जो आनंद से भरपूर है। इसलिये शाखा सभी को जाना चाहिए, मन व मस्तिष्क के साथ राष्ट्र भी मजबूत, सशक्त और गौरवशाली बनेगा।


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