जलचर और महर्षि च्यवन

बोधकथा : महर्षि च्वयन बचपन से बड़े ज्ञानी थे। जब महर्षि च्यवन मां के गर्भ में थे तभी एक राक्षस उनकी माता को परेशान करता है इसी दौरान महर्षि च्यवन का गर्भ जमीन पर गिर जाता है और उसी के तेज से राक्षस भस्म हो जाता है महर्षि फिर गर्भ में चले जाते हैं। महर्षि च्यवन का भृगु वंश था। एक बार की बात ने महर्षि च्यवन ने महान् व्रत का आश्रय लेकर जल के भीतर रहना शुरू कर दिया। वे गंगा-यमुना-संगम स्थल पर रहते थे। वहां उनकी जलचरों से प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। एक बार मछवाहों ने मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल डाला तो मत्स्यों सहित च्यवन ऋषि भी जाल में फंस गये। नदी से बाहर निकलने पर उन्हें देख समस्त मछवाहे उनसे क्षमा मांगने लगे। च्यवन ने कहा कि उनके प्राण मत्स्यों के साथ ही त्यक्त अथवा रक्षित रहेंगे। उस नगर के राजा को जब च्यवन की इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने भी मुनि से उचित सेवा पूछी। मुनि ने उससे मछलियों के साथ-साथ अपना मूल्य मछवारों को देने के लिए कहा। राजा ने पूरा राज्य देना भी स्वीकार कर लिया, किंतु च्यवन उसे अपने समकक्ष मूल्य नहीं मान रहे थे। तभी गौर के पेट से जन्मे गोताज मुनि उधर आ पहुंचे। उन्होंने राजा नहुष से कहा- जिस प्रकार च्यवन अमूल्य हैं, उसी प्रकार गाय भी अमूल्य होती है, अत: आप उनके मूल्यस्वरूप एक गौर दे दीजिए। राजा के ऐसा ही करने पर च्यवन प्रसन्न हो गये। मछवाहों ने क्षमा-याचना सहित वह गाय च्यवन मुनि को ही समर्पित कर दी तथा उनके आशीर्वाद से वे लोग मछलियों के साथ ही स्वर्ग सिधार गये। च्यवन तथा गोताज अपने-अपने आश्रम चले गये।

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