निर्दोष को मत सताना


बोधकथा : कणाद ऋषि के आश्रम में देव नगर का राजकुमार पुरु शिक्षा प्राप्त कर रहा था। आश्रम के नित्य कार्य, साफ-सफाई और गुरु सेवा उसकी दिनचर्या में शामिल थे। ऋषि का शिक्षा देने और समझाने का ढंग अन्य गुरुओं से अलग हटकर था। वह बोलकर नहीं, उदाहरण देकर समझाने में अधिक विश्वास रखते थे। एक दिन गुरु व शिष्य गांव का भ्रमण कर रहे थे। रास्ते में ऋषि की छड़ी नीचे गिर गई। अपना कर्तव्य समझते हुए पुरु छड़ी उठाने के लिए झुका ही था कि तभी ऋषि ने उसकी पीठ पर अपने पैर से प्रहार किया। बेवजह चोट पडऩे पर पुरु ने कारण जानना चाहा, मगर ऋषि मुस्कराकर टाल गए। यह बात शिक्षा काल के दौरान राजकुमार के दिल में कांटे की तरह चुभती रही। शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात पुरु अपने राज्य लौट गया और कुछ समय बाद राजा बनकर राजकाज संभाल लिया। एक दिन ऋषि कणाद अपने शिष्य से मिलने राजमहल में आए तो पुरु से रहा नहीं गया और गुरु जी से उस दिन बेवजह प्रहार करने का कारण जानना चाहा। तब ऋषि बोले-पुत्र, मैंने तुम्हें बिना वजह दंड दिया, उस दंड की याद तुम्हें अभी तक सीने में चुभ रही है। गलती करने पर मिला दंड तो इनसान भूल जाता है मगर निर्दोष अपने दंड को कभी नहीं भूल पाता। तुम भी कभी किसी निर्दोष को मत सताना, गुरु के रूप में तुम्हें मेरी यही अंतिम शिक्षा है।

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