तृष्णा तो सभी के मन में है!

बोधकथा : तक्षशिला के राजा भोजन की शुद्धता पर बहुत सोच-विचार रखते थे। इसलिए उनका नाम ही भोजन शुद्धिक पड़ गया था। राजा जब भोजन करते थे तो उसमें अनेक भोग होते थे जो बेशकीमती बर्तनों में प्रजा को दिखाते हुए करता था। स्वर्ण छत्र के नीचे सेवक, सेविकाएं राजा को भोजन परोसते थे। एक अति लोभी मनुष्य को उक्त राजसी भोजन खाने की लालसा उत्पन्न हुई, मगर राजा का भोजन छूने की बात तो दूर, दूर से ही देख सकते थे। उसे एक उपाय सूझा। वह राजा के भोजन के समय-मैं दूत हूं, मैं दूत हूं चिल्लाता हुआ राजा के पास जा पहुंचा। राजा के अंगरक्षक तलवार लेकर उसकी ओर दौड़ते हुए आए तो राजा उनको रोकते हुए बोला- इसे भोजन करने दो, यह दूत है। भोजन के पश्चात राजा ने उससे पूछा-महानुभाव, आप किसके दूत हैं। आपको किसने भेजा है। वह लोभी बोला-महाराज, मैं तृष्णा और पेट का दूत हूं। तृष्णा ने ही मुझे पेट का दूत बनाकर भेजा है। पेट की भूख के वशीभूत होकर तो लोग शत्रु के यहां भी मांगने चले जाते हैं, इसलिए आप क्रोध न करें। राजा ने उसकी बात पर सहमति जताते हुए कहा-ठीक कहते हो भाई। तृष्णा ही हमसे अच्छे-बुरे कर्म करवाती है। वास्तव में हम सब ही इस तृष्णा के दूत हैं। यह कहकर राजा ने उसे उचित दान और खाद्य सामग्री देकर विदा किया।

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