महाराष्ट्र और हरियाण में चुनावी संग्राम की तैयारियां

विचार : चुनाव आयोग द्वारा तिथियां घोषित किए जाने के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावी जंग की तैयारियां तेज हो गई हैं। 21 अक्टूबर को ही इन दोनों प्रदेशों के अलावा 17 राज्यों की 64 विधानसभा सीटों और बिहार की एक लोकसभा सीट (समस्तीपुर) के लिए उपचुनाव भी होंगे लेकिन सबकी नजरें इस बात पर होंगी कि बीजेपी महाराष्ट्र और हरियाणा में अपनी सत्ता बचा पाती है या नहीं। इसका जवाब 24 अक्टूबर को मतों की गिनती पूरी होने के बाद ही मिलेगा, लेकिन अगर इस मुख्य सवाल से अलग हटकर दोनों प्रदेशों की राजनीतिक स्थिति पर नजर डालें तो दोनों जगह एक खास राजनीतिक शैली की सफलता-असफलता भी दांव पर लगी नजर आती है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुआई में बीजेपी ने जो नई राजनीति विकसित की है वह हर जगह पारंपरिक समीकरणों को तोड़कर खेल के नियम ही बदल देने में यकीन रखती है।

  महाराष्ट्र में 2014 का लोकसभा चुनाव शिवसेना के साथ मिलकर लडऩे और जीतने के बाद विधानसभा चुनाव में वह अकेली मैदान में उतरी और 288 में से 122 सीटें जीत लीं, जबकि बीजेपी से ज्यादा सीटों पर लडऩे के बावजूद शिवसेना 63 सीटें ही ले पाई। प्रदेश की राजनीति में यह शिवसेना के लिए निर्णायक संदेश था कि वह खुद को बड़ा भाई और बीजेपी को छोटा भाई मानकर चलने की अपनी सोच बदले। इससे भी बड़ा संदेश बीजेपी ने राज्य में ब्राह्मण बिरादरी का मुख्यमंत्री बनाकर दिया। मनोहर जोशी के रूप में शिवसेना ने भी 1995 में राज्य को ब्राह्मण मुख्यमंत्री दिया था, लेकिन उनकी अगुआई में चुनाव लडऩे की हिम्मत वह नहीं कर पाई और विधानसभा चुनाव से साल भर पहले ही उसने जोशी की जगह नारायण राणे को बिठा दिया। इसके विपरीत बीजेपी न केवल फड़णवीस को मुख्यमंत्री बनाए हुए है बल्कि मराठा आरक्षण के जरिए उसने मराठा मतदाताओं का मन जीतने का प्रयास भी किया है। विपक्ष का हाल देखें तो कांग्रेस और एनसीपी ने सीट बंटवारे का फॉर्म्युला फाइनल करके बेहतर तैयारी के साथ मैदान में उतरने का संदेश देने की कोशिश जरूर की है, लेकिन जहां तक मनोबल का सवाल है तो इस मोर्चे पर फिलहाल वह बहुत पीछे है।
हरियाणा में भी बीजेपी ने मनोहरलाल खट्टर के रूप में गैर जाट मुख्यमंत्री दिया और अगला चुनाव भी उन्हीं की अगुआई में लडऩे जा रही है। जाट आधिपत्य वाले इस राज्य में इसको निश्चित रूप से एक साहसिक कदम माना जाएगा। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के जाट नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा शुरू में खट्टर सरकार का प्रबल प्रतिपक्ष नजर आते थे, लेकिन फिर पार्टी के अंदरूनी झगड़ों के क्रम में उनके कांग्रेस छोडऩे की चर्चा के बीच जैसे-तैसे उन्हें लड़ाई की कमान थामने के लिए मनाया गया है। ऐसे में देखना यही है कि कांग्रेस चुनाव में कितना दम पैदा कर पाती है। जाहिर है, सत्तापक्ष के सामने अपनी राजनीतिक शैली पर डटे रहने की जबकि विपक्ष के सामने अपना अस्तित्व बचाए रखने की चुनौती दोनों राज्यों में एक सी है।

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