ब्रह्मज्ञान का उपदेश
बोधकथा : महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं। एक मैत्रेयी दूसरी कात्यायनी। महर्षि बड़े ही वीतराग और ज्ञानी थे। यथासमय उन्होंने वन जाकर प्रकृति की शरण लेने का निश्चय किया और एक दिन उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर कहा— मेरे पास जो सम्पत्ति है मैं उसे आधा-आधा बांट रहा हूं, ताकि तुम दोनों सुखपूर्वक रह सको। महर्षि के इस आकस्मिक बंटवारे के निर्णय को सुनकर मैत्रेयी ने पूछा— 'आप कहां जा रहे हैं? महर्षि ने सहजता से कहा—मैं सब त्याग करके वन जा रहा हूं, वहां प्रकृति की सेवा और साधना करूंगा। मैत्रेयी को समझ आ गया कि सम्पत्ति से ज्ञान का मूल्य अधिक है।
सम्पत्ति तो समय के प्रभाव से नष्ट हो सकती है पर अविनाशी ज्ञान से लोक और परलोक दोनों का ही साधन होता है। इसलिए उसने कहा—भगवन् जिनसे मेरा मरना-जीना न छूटे उसे लेकर मैं क्या करूंगी? आप तो मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दीजिए। मुझे भी अपने साथ ले चलिए। इस तरह मैत्रेयी ने अपने हिस्से का सारा धन कात्यायनी को देकर महर्षि के साथ जीव-सेवा और अध्यात्म का मार्ग अपनाया।
सम्पत्ति तो समय के प्रभाव से नष्ट हो सकती है पर अविनाशी ज्ञान से लोक और परलोक दोनों का ही साधन होता है। इसलिए उसने कहा—भगवन् जिनसे मेरा मरना-जीना न छूटे उसे लेकर मैं क्या करूंगी? आप तो मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश दीजिए। मुझे भी अपने साथ ले चलिए। इस तरह मैत्रेयी ने अपने हिस्से का सारा धन कात्यायनी को देकर महर्षि के साथ जीव-सेवा और अध्यात्म का मार्ग अपनाया।
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