राम मंदिर...ताकि बेंच को चार सप्ताह का समय फैसला लिखने को मिल जाये


विचार : दशकों से लंबित पड़े बेहद जटिल और संवेदनशील अयोध्या विवाद मामले में नियमित सुनवाई कर रही सुप्रीमकोर्ट की संवैधानिक पीठ ने दोनों पक्षों को आगाह किया है कि 18 अक्तूबर तक दोनों पक्ष दलीलें पूरी कर लें ताकि बैंच को चार सप्ताह का समय फैसला लिखने को मिल जाये। दरअसल, संवैधानिक पीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई आगामी सत्रह नवंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। कोर्ट चाहता है कि इतनी लंबी प्रक्रिया पूरी होने के बाद कोई निर्णायक व सर्वमान्य फैसला सामने आ सके। नि:संदेह संवैधानिक पीठ के किसी भी सदस्य के रिटायर होने के मायने हैं कि मामले की सारी प्रक्रिया नये सिरे से शुरू करना।
इसी बीच मध्यस्थता के नये सिरे से किये जा रहे प्रयासों को शीर्ष अदालत ने खारिज तो नहीं किया है मगर इससे अदालत की निर्णायक समाधान तक पहुंचने की कोशिश बाधित नहीं होने दी जायेगी। यदि कोई व्यवधान उत्पन्न होता है तो इससे समय व संसाधनों का क्षरण ही होगा।?उल्लेखनीय है कि सुप्रीमकोर्ट की पहल पर इसी साल मार्च में इस मामले के सर्वमान्य समाधान के लिये मध्यस्थता की कोशिश हो चुकी है। सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले के समाधान के लिये न्यायमूर्ति एमएमआई कलीफुल्ला की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पैनल बनाया था। लेकिन तमाम अंतर्विरोधों के चलते मध्यस्थता के प्रयास सिरे नहीं चढ़ सके। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि नये सिरे से मध्यस्थता के प्रयास कितने गंभीर हैं और क्या ये प्रयास निर्णायक स्थिति तक पहुंचने में सहायक हो सकते हैं। महत्वपूर्ण यह?भी है कि संवैधानिक पीठ द्वारा जारी प्रक्रिया में किसी तरह का व्यवधान न उत्पन्न हो। खैर, बुधवार को सुप्रीमकोर्ट ने तमाम अटकलों का पटाक्षेप करते हुए स्पष्ट कर दिया कि अदालत में अयोध्या विवाद संबंधित सुनवाई एक महीने के भीतर पूरी कर ली जाये, जिससे अदालत को फैसला लिखने का पर्याप्त समय मिल जाये। संकेत यह भी कि मुख्य न्यायाधीश?की सेवानिवृत्ति से पहले निर्णायक फैसला देश को मिल सकेगा। उल्लेखनीय है कि अयोध्या विवाद में सुप्रीमकोर्ट की संवैधानिक पीठ जमीन के मालिकाना हक के लिये सुनवाई कर रही है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ में न्यायमूर्ति एसए बोबडे, न्यायमूर्ति धनंजय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल?शामिल हैं। पीठ ने सुनवाई के साथ ही मध्यस्थता के प्रयासों को खारिज नहीं किया। पीठ ने माना है कि सौहार्दपूर्ण समाधान के लिये न्यायिक प्रक्रिया के बीच मध्यस्थता के प्रयास किये जा सकते हैं। दरअसल, वर्ष 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा विवादित जमीन के बाबत दिये फैसले को स्वीकार न किये जाने और मध्यस्थता के प्रयासों के विफल हो जाने के बाद ही सुप्रीमकोर्ट नियमित रूप से अयोध्या विवाद में जमीन के मालिकाना हक को लेकर सुनवाई कर रहा है।
नि:संदेह सात दशक से चले आ रहे विवाद और इस मुद्दे के गहराई तक राजनीतिकरण के बाद देश का जनमानस उम्मीद लगाये हुए है कि देश की शीर्ष अदालत ही कोई ऐसा सर्वमान्य फैसला दे, जिसे सभी पक्ष स्वीकार करें तथा देश में वातावरण सौहार्दपूर्ण बना रहे ताकि दुनिया में संदेश?जा सके कि भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बरकरार है और देश?मंदिर-मस्जिद विवाद से कहीं आगे निकलकर लोगों के बुनियादी मुद्दों के निराकरण की तरफ बढ़ चला है। नि:संदेह दशकों से लंबित इस मामले के जरिये जिस तरह राजनीतिक समीकरण साधे जा रहे हैं, उसे देखते हुए इस मामले का जल्दी निस्तारण देश हित में ही होगा। यह मामला देश में शांति व समरसता से जुड़ा गंभीर मसला है। करोड़ों लोगों के अहसासों व संवेदनाओं से जुड़ा होने के कारण राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों का दायित्व बनता है कि अदालत का जो भी फैसला आये, उसके लिये सभी पक्षों को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया जाये। यही देशहित में होगा।

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