छुटभइये नेताओं के सहारे जनता को भ्रम में रखने वाली कांगे्रस पार्टी और प्रियंका

विचार : कांगे्रस में नयी जान फूंकने के उद्देश्य से राजनीति में आयी हैं प्रियंका और प्रियंका कांग्रेस पार्टी की विचारधारा के अनुरूप जिम्मा संभाल भी लिया है। प्रियंका अस्पताल में चंद्रशेखर से मिली क्या, सपा और बसपा की बेचैनी बढ़ गयी। उधर, अहमदाबाद में कार्यसमिति की बैठक में कांगे्रस ने अपनी चुनावी रणनीति के संकेत दिए और प्रियंका गांधी ने यहीं से बाकायदा अपने चुनावी अभियान और राजनीतिक करियर की शुरुआत की। अहमदाबाद में कार्यसमिति की बैठक आयोजित कर कांग्रेस ने यह संदेश भी देना चाहा है कि महात्मा गांधी की विरासत उसी के पास है और यही उसकी मूल पूंजी है। वह गांधीवादी मूल्यों की राजनीति करती है और गांधीवाद को ही बीजेपी के राष्ट्रवाद का जवाब मानती है। कांग्रेस ने बताना चाहा है कि भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रवाद घृणा और उन्माद पर टिका है, जबकि गांधी की देशभक्ति की बुनियाद में सबको गले लगाने और सबको साथ लेकर चलने का भाव है। वायुसेना के एयर स्ट्राइक के बाद बीजेपी ने तमाम मुद्दों को दरकिनार कर राष्ट्रवाद को ही अपना अजेंडा बना रखा है और इसके नाम पर एक मजबूत सरकार के लिए वोट मांग रही है। अपनी इस रणनीति के जरिए उसने कुछ हद तक विपक्ष को बैकफुट पर धकेल दिया है। लेकिन इसकी काट के रूप में कांग्रेस सहिष्णु राष्ट्रवाद को आक्रामक राष्ट्रवाद के विकल्प की तरह प्रस्तुत करना चाहती है। प्रियंका गांधी ने अपने संबोधन में कहा कि यह देश प्रेम, सद्भावना और आपसी लगाव के आधार पर बना है। मैं दिल से कहना चाहती हूं कि इससे बड़ी कोई देशभक्ति नहीं है कि आप जागरूक बनें। आपकी जागरूकता एक हथियार है। यह ऐसा हथियार है, जिससे किसी को दुख नहीं देना, किसी को चोट नहीं पहुंचानी। पर यह आपको मजबूत बनाएगा। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया कि भारतीय जनता पार्टी के अजेंडे में फंसने के बजाय बेरोजगारी, किसान, राफेल में भ्रष्टाचार और सरकार के वायदे पूरा न करने के मसले को लेकर ही जनता के पास जाया जाए। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जनता का ध्यान राष्ट्रवाद से हटाकर वह रोजमर्रा के मुद्दों पर कैसे लाए। उसने संगठन मजबूत करने पर ध्यान देना शुरू किया है और हार्दिक पटेल जैसे जमीनी नेताओं को अपना हिस्सा बनाया है। लेकिन पूरे विपक्ष को साथ लेकर चलने में वह अभी ज्यादा कामयाब होती नहीं दिख रही। कई राज्यों में गठबंधन का मामला लटका हुआ है या अस्पष्ट है। देखना है, सत्तापक्ष के सामने वह कितनी चुनौती पेश कर पाती है। कांगे्रस पार्टी गम्भीर चुनौतियों के साथ हर उस दरवाजे पर खड़ी नजर आती है, जहां से दोस्ताना संदेश की जरा सी भी सम्भावना की उम्मीद हो। हालत देखिये 2014 के चुनाव में, देश का परिदृश्य बदल गया, विचारों की आंधी सूनामी में तब्दील हो गयी। कुछ शेष बचे तो कुछ वजूद के लिए आज भी हाथ, पैर मारते हुए सामने है। करीब पांच दशकों तक अपवाद को छोड़ दें तो गांधी परिवार को कभी कोई गम्भीर चुनौती नहीं मिली तो आज राहुल गांधी भले ही बयानों के जरिये कोलहाल का पर्याय बनने की दौड़ में सामने नजर आते हों, लेकिन हालत देखिये कि उत्तर प्रदेश में माया और अखिलेश ने उन्हें ठुकराये ही नहीं, बल्कि औकात के मायनों को भी समझा दिया। छोटी पार्टियां कल तक क्षेत्रीय आवरण में अपने-अपने राज्यों की छत्रप कहलाती थीं आज भारत की सियासत की वह केंद्र बिंदु बनकर सामने हैं। रही बात कांगे्रस की तो जहां से सम्भावनाओं की जरा सी भी आहट नजर आयी कांगे्रस के सूरमा उसी दिशा में दौड़ पड़ते हैं। भीम आर्मी का चंद्रशेखर सामाजिक तानेबाने का नासूर है। लेकिन जैसे ही पता चला कि मायावती ने उसकी पहल को ठुकरा दिया, प्रियंका गांधी सीधे गुजरात से उसे अस्पताल देखने पहुंच गईं। तमाशे का यह रूप सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं, चारा घोटाले व भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में घिरा लालू परिवार आज अपनी शर्तों पर कांगे्रस को नचाता हुआ सामने है। यही हालत पश्चिम बंगाल की है, जहां ममता बनर्जी कांगे्रस को करीब भटकने नहीं दे रही हैं तो विगत दो चुनावों में लुटी, पिटी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ दोस्ताना संदेश का आगाज नजर आ रहा है। न सिद्घांत हैं, न वैचारिक संदेश का कोई गुणा, भाग। यहां सिर्फ मकसद मोदी विरोध का है। किसी भी तरह सत्ता पर काबिज होना है और तकरीबन 19 विपक्षी दल मोदी विरोध के एक सूत्री कार्यक्रम के तहत चुनावी मैदान में उतरने का दमखम दिखा रहे हैं। दक्षिण के चंद्रबाबू नायडू कांगे्रस को औकात बता चुके हैं, तेलंगाना के केसीआर राहुल को घास तक डालने को तैयार नहीं। रही बात तमिलनाडु की तो वहां भी डीएमके के आगे झुककर सीटों का समझौता करना पड़ा। सवाल किससे पूछा जाये, जनमानस को सब पता है और यह भी समझना होगा कि विपक्ष की अधिकांश पार्टियां वंशवाद की शिकार ही नहीं बल्कि सियासत में फतह की मंशा भी इसी आधार पर बेबाकी से सामने रखते हुए नजर आते हैं। गौर करें चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर से सत्ता हथियाई थी और अब उत्तराधिकारी के रूप में उनके पुत्र सामने हैं। वंशवाद का दूसरा रूप तमिलनाडु है, जहां करुनानिधि के पुत्र लेनिन डीएमके के सर्वेसर्वा हैं। दक्षिण के ही राज्य कर्नाटक में देवेगौड़ा के पुत्र कुमारस्वामी मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ा रहे हैं। वंशवाद का यह गणित दक्षिण भारत का है। यदि हिंदी बेल्ट के साथ पंजाब और हरियाणा की तरफ निगाह डालें तो राजनीति का और भी धिनौना वंशवादी चरित्र खुलकर दिखाई पड़ता है। उत्तर प्रदेश समाजवाद के चितेरे, भाई, भतीजा, पुत्र और नातियों की टोली तक सीमित है। बिहार में चारा घोटाले के बाहुबली लालू पुत्र, पुत्री और पत्नी को सामने लाकर राजनीति के पुरोधा बन चुके हैं। तो हरियाणा में चौटाला बंधुओं का परिवार इसी शर्मनाक कड़ी का सच है। इन सबों को उस मोदी से डर है, जिसने राजनीति की शुचिता के लिए अपनी मां तक को पीएम हाऊस में नहीं रखा, जिनके भाई आज भी सरकार के छोटे मुलाजिम हैं और एक भार्ई परचून की दुकान चलाता है। चुनावी युद्घ के रणबांकुरों का चरित्र देखिये, आज कौरवों की फौज साम-दाम-दंड-भेद के साथ मोदी को व्यूहरचना में फंसाने की जुगत में है। देखना है आने वाले कल में सफलता का बिगुल किस कोने से बजता है। यह बात अलग है कि कांगे्रस पार्टी एक जमाने में आका थी, लेकिन आज छुटभइये नेता भी कांगे्रस को फूटी आंख नहीं देखना चाहते।

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