कष्टों से नहीं डरते सच्चे मनुष्य

 

बोधकथा। स्वतंत्रता संग्राम में जूझते हुये महाराणा प्रताप वन, पर्वतों में अपने छोटे परिवार समेत मारे-मारे फिर रहे थे। एक दिन ऐसा अवसर आया कि खाने के लिये कुछ भी नहीं रहा। अनाज को पीसकर उनकी धर्मपत्नी ने जो भोजन बनाया था, उसे जंगली जानवर उठा ले गये। छोटी बच्ची भूख से व्याकुल होकर रोने लगी। महाराणा प्रताप का साहस टूटने लगा, वह इस प्रकार बच्चों को भूख से तड़पकर विहृवल होते देखकर विचलित होने लगे। एक बार महाराणा प्रताप के मन में आया कि शत्रु से संधि कर ली जाये और आरामपूर्वक जीवन बिताया जाये। उनकी मुख मुद्रा गम्भीर विचार में डूबी हुई ​थी। रानी को अपने पतिदेव महाराणा प्रताप की चिंत समझने में देर न लगी, उन्होंने प्रोत्साहन भरे शब्दों में कहा कि नाथ, कर्तव्यपालन मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा है, इसे किसी भी मूल्य पर गंवाया नहीं जा सकता, सारे परिवार के भूखों या किसी भी प्रकार मरने के मूल्य पर भी नहीं। सच्चे मनुष्य न कष्टों से डरते हैं और न ही आघातों से, उन्हें तो कर्तव्य का ही ध्यान रहता है। आप दूसरी बात क्यों सोचने लगे। पत्नी की बात सुनकर महाराणा प्रताप का उतरा हुआ चेहरा फिर से चमकने लगा और उन्होंने कहा कि प्रिये, तुम ठीक कहती हो। सुविधा का जीवन तुच्छ जीव भी बिता सकते हैं, लेकिन कर्तव्य की कसौटी पर तो मनुष्य ही कसे जाते हैं, परीक्षा की इस घड़ी में हमें खोटा नहीं, खरा ही सिद्ध होना चाहिए। महाराणा प्रताप वन से दूसरा आहार ढूंढकर लाये और उन्होंने दूने उत्साह से स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने की गतिविधियां शुरू कर दीं।

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