खुद से लड़ रही है कांग्रेस


विश्ललेषण : विधानसभा चुनाव के लिये टिकट वितरण से उपजे आक्रोश के बीच हुए हाई वोल्टेज ड्रामे से तो यही लगता है कि कांग्रेस भाजपा से लडऩे से पहले पार्टी के भीतर ही जूझ रही है। नि:संदेह सत्ता से बाहर रहने की तड़पन के बीच पिछले पांच सालों में पार्टी के भीतर जारी उठापटक जब-तब उजागर हुई। पिछले दिनों तो यह सतह पर आ गई थी। फिर केंद्रीय नेतृत्व की दखल के बाद राज्य के पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन किया गया। कमोबेश पार्टी में सत्ता के दो केंद्र बनते नजर आए। एक को पार्टी की बागडोर दी गई तो दूसरे को पार्टी का खेवनहार बनाया गया। जाहिर है टिकट वितरण में नये नेतृत्व की ही चलनी थी। यह उम्मीद तो थी कि पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर के समर्थक टिकट न मिलने पर प्रलाप करेंगे। मगर यह उम्मीद न थी कि यह कड़वाहट सड़क पर आ जायेगी।

अशोक तंवर द्वारा अपने समर्थकों के साथ पार्टी के केंद्रीय मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन और सार्वजनिक तौर पर मोटी रकम लेकर टिकट बांटने का आरोप निश्चय ही पार्टी की साख को बट्टा लगाने वाला है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि पार्टियां टिकट देने में मोटा लेनदेन करती हैं, लेकिन इस बात की सार्वजनिक अभिव्यक्ति पार्टी की साख को नुकसान पहुंचाने वाली ही है। वह भी तब जब यह आरोप पांच साल हरियाणा में पार्टी का नेतृत्व संभालने वाला व्यक्ति लगाये। निश्चय ही यह स्थिति केंद्रीय नेतृत्व को असहज करने वाली है। चिंता की बात यह भी है कि ऐसी बातें जनता में पार्टी के प्रति आम धारणा को बदलती हैं। इस तरह की धारणाएं चुनावी मौसम में कभी-कभी भारी भी पड़ती हैं। वैसे भी पिछले सालों में हुड्डा व तंवर गुट की टकराहट गाहे-बगाहे उजागर होती ही रही है। यह समय हरियाणा कांग्रेस के लिये पराभव का ही रहा है। यहां सवाल अशोक तंवर पर भी उठाया जा सकता है कि जब वे कह रहे हैं कि उन्होंने पार्टी को खून-पसीने से सींचा तो क्या वे पार्टी को ब्लॉक व जिला स्तर पर खड़ा कर पाये? क्यों जींद उपचुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक पार्टी लगातार शिकस्त झेलती रही?
दरअसल, टिकटों के बंटवारे को लेकर कलह का सार्वजनिक होना राजनेताओं की असलियत को ही उजागर करता है। पार्टी कोई भी हो, लंबे अर्से से पार्टी का वफादार सेनानी कहलाने वाला नेता िटकट न मिलते ही बागी बन जाता है। क्या राजनीति महज सत्तािलप्सा की ही रह गई है? क्या टिकट के अलावा इन नेताओं का कोई व्यक्तिगत वजूद नहीं होता? क्या इनका जनाधार टिकट न मिलने से सिकुड़ जाता है? या फिर सत्ता की ताकत से दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने का संकल्प अधूरा रह जाने की बेचैनी सताती है? यानी लोकतंत्र महज सुख, सुविधा और संसाधनों की बंदरबांट तक ही सीमित है? कमोबेश कुछ ऐसी ही सीमित परिस्थितियों से भाजपा भी दो-चार हुई जब पार्टी ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिये दो मंत्रियों समेत बारह मौजूदा विधायकों के टिकट काटे।
पंख कटे परिंदों की तरह टिकट कटे नेताओं की टीस गाहे-बगाहे सामने आती रही। कुछ बागी तेवरों के साथ नजर आये तो कुछ अन्य दलों में संभावना तलाशते नजर आए। एक नेता ने तो पार्टी का टिकट न मिलने के तुरंत बाद पार्टी का बैनर-झंडा अपने कार्यालय से उतार दिया। यानी टिकट मिलने तक ही दोस्ती, बाकी राम-राम। हालांकि, केंद्र व राज्य की सत्ता में पार्टी की पकड़ और प्रभावी पार्टी संगठन के चलते टिकट कटे नेताओं का मुखर विरोध सामने नहीं आया, मगर सत्ता सुख का विछोह गहरे तक टीस दे गया। नि:संदेह यह प्रवृत्ति हमारे राजनीतिक व्यवहार व सत्ता की महत्वाकांक्षाओं को ही दर्शाती है जो स्वस्थ लोकतंत्र में आस्था रखने वालों की चिंता ही बढ़ाती है।

साभार

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वृष राशि वालों के लिए बेहद शुभ है नवम्बर 2020

26 नवम्बर 2020 को है देवउठनी एकादशी, शुरू होंगे शुभ कार्य

15 मई से सूर्य मेष से वृषभ राशि में जाएंगे, जानें किन राशियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा