मंदी की चपेट में दुनिया


विश्लेषण : औद्योगिक उत्पादन सूचकांक साढ़े छह साल में सबसे कम है। बीते जुलाई के मुक़ाबले अगस्त में औद्योगिक विकास 4.3 प्रतिशत से घटकर -1.10 प्रतिशत पर आ गया। ये आँकड़े फ़रवरी 2013 के बाद सबसे कमज़ोर हैं। देश के 23 औद्योगिक समूहों में से 15 में निर्माण वृद्धि घटती हुई नकारात्मक हो गई है। हाल के दिनों में ऑटो सेक्टर की हालत ख़राब है ही। बेरोज़गारी भी रिकॉर्ड स्तर पर है। वहीं दूसरी ओर आखिरकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की प्रमुख ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर लिया है कि दुनिया का नब्बे फीसदी हिस्सा मंदी की चपेट में है, जिसके मुकाबले को साझे कदम उठाये जाने की जरूरत है। उनकी चिंता में बड़ी बात यह है कि पटरी से उतरी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये मंदी बड़ी चुनौती है। हालांकि, इस संकट की आहट को महसूस करते हुए अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये केंद्र सरकार ने कई चरणों में कदम उठाये हैं, मगर सार्वजनिक तौर पर मंदी की बात स्वीकार नहीं की है। बुधवार को केंद्रीय सेवारत कर्मचारियों व सेवानिवृत्त कर्मचारियों के महंगाई भत्ते में जो पांच फीसदी की वृद्धि की गई है, वह एक उपभोक्ता के रूप में उनकी क्रय शक्ति बढ़ाकर मंदी से मुकाबले के प्रयासों के रूप में ही देखी जानी चाहिए। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि क्या केवल केंद्रीय कर्मचारी ही महंगाई की चुनौती से जूझ रहे हैं क्या अन्य राज्य कर्मचारियों और असंगठित क्षेत्रों के कर्मचारियों के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए वहीं मेहनत-मजदूरी से जीवनयापन करने वाले तबके के लिये राहत योजना नहीं लायी जानी चाहिए वह भी तब जब अप्रत्याशित बेरोजगारी के आंकड़े चिंता बढ़ा रहे हैं। हां, इतना जरूर है कि सरकार सफाई दे सकती है कि देश में आई मंदी के मूल में नोटबंदी और जीएसटी के कुप्रभाव नहीं है, यह एक विश्वव्यापी मंदी की प्रवृत्ति है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की नवनियुक्त प्रमुख क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने स्वीकार किया है कि मौजूदा वर्ष में विकास दर पिछले दशक में सबसे कम रहने वाली है, जिसके मूल में कहीं न कहीं दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्था वाले देशों अमेरिका व चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध के प्रभाव भी हैं। ऐसे में वर्ष 2009 में मंदी से निपटने के लिये किये गये साझा उपायों की उम्मीद कम ही है। दरअसल, यह टकराव केवल अमेरिका व चीन में ही नहीं है बल्कि अमेरिका का कनाडा व ब्राजील से भी है। साथ ही यूरोपीय यूनियन से भी कई आर्थिक मुद्दों को लेकर टकराव जारी है।
नि:संदेह भारतीय रिजर्व बैंक को भी इस मंदी की आहट का अहसास है। यही वजह है कि उसने पिछले दिनों देश की विकास दर के लक्ष्य में बड़ी कटौती की थी, जिसके चलते शेयर बाजार भी लुढ़का था और कुछ लोग इसे स्वीकार नहीं कर रहे थे। रिजर्व बैंक ने मंदी के लक्षणों को स्वीकार करके ही कदम उठाये थे, केंद्र सरकार भी इस दिशा में बढ़ी, मगर उसने सार्वजनिक तौर पर मंदी की बात को स्वीकार नहीं किया। नि:संदेह सरकार को आत्ममंथन करना चाहिए कि जो अर्थव्यवस्था कुछ समय पहले तक दुनिया में सबसे तेज गति से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था थी, वह मंदी की चपेट में कैसे आ गई। इस चुनौती से निपटने को समग्र रणनीति बनाने की जरूरत है। केंद्र को इस बात का अहसास होना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसी ताकत है कि वो पिछली विश्वव्यापी मंदी के दौरान वह मजबूती से खड़ी रही थी। कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय घटक हैं, मगर सरकार की तरफ से इस चुनौती से निपटने में कुछ देरी अवश्य हुई है। अब भी इतनी देर नहीं हुई है कि हम मंदी को शिकस्त न दे सकें। अपार युवा श्रम शक्ति वाले देश में कारगर नीतियों से बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकते हैं। यह तथ्य भी ध्यान में रखना जरूरी है कि दुनिया में समय-समय पर मंदी की स्थितियां पैदा हुई हैं। हमें मंदी के साथ आगे बढऩे के संकल्प के साथ अर्थव्यवस्था को गति देने का प्रयास करना होगा। वैश्वीकरण के इस दौर में हमारी अर्थव्यवस्था वैश्विक प्रभावों से अछूती नहीं रह सकती, मगर अपना घर तो हमें ही संभालना है। सरकार को इसे चेतावनी की तरह ही लेना होगा। इतिहास गवाह है कि मंदी के प्रभाव बड़े राजनीतिक व सामाजिक बदलावों के वाहक रहे हैं।

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