विनोबा भावे को कड़े प्रयासों से मिली सफलता

प्रेरक कथा : आचार्य विनोबा भावे अपने सद्विचारों के कारण समाज के हर वर्ग में बडे ही लोकप्रिय थे। प्रत्येक विषय पर विनोबा भावे के विचार इतने सरल और स्पष्ट होते कि वे सुनने वाले के हृदय में सीधे उतर जाते थे। विनोबा भावे गांव—गांव घूमकर भूदान यज्ञ के लिये भूमि इकट्ठा कर रहे थे। उनके पास न धन था और न कोई बाहरी सत्ता, लेकिन सेवा के साहस से उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें 40 लाख एकड़ से अधिक जमीन मिली। एक बार की बात है कि गांव का एक जमींदार विनोबा भावे से मिलना टालता रहा। शुभचिंतकों ने जमींदार से पूछा कि आप श्री भावे से क्यों नहीं मिल लेते। जमींदार ने कहा कि भावे से मिलूंगा तो वे ज़मीन मांगेंगे और मुझे देनी पड़ेगी। जमींदार से पूछा गया कि ऐसा क्यों? आप अपनी जमीन नहीं देना चाहते हो तो मत देना। कह देना कि नहीं दे सकता। इसमें कोई जबरदस्ती थोड़ी है। विनोबा केवल प्रेम से ही तो जमीन मांगते हैं। ज़मींदार बोला कि वे प्रेम से मांगते हैं और उनकी बात सही है इसलिये उनको टाला नहीं जा सकेगा। विनोबा भावे ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने हर्ष से कहा कि बस उस जमींदार की जमीन मुझको मिल गयी। हमारा उद्देश्य भूदान के माध्यम से सामन्तवादी विचारों को ही तो समाप्त करना है। इसी तरह उन्हें सैकड़ों गाँव ग्रामदान में मिले। विनोबा भावे के दिल में कोई स्वार्थ  नहीं था। ऐसे आदमी को अपने काम में सफलता मिलनी ही थी। वह हज़ारों मील पैदल चले। जाड़ों में चले, गर्मियों में चले, वर्षा में चले, धूप में चले। सेवा के आनन्द में लीन होकर चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। विनोबा भावे समाज को समान मानते थे और आज के समय में भी समाज जब तक समान नहीं होगा, हमें सफलता नहीं मिलेगी। विनोबा भावे ने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था। इस कार्यक्रम में वे पदयात्री की तरह गाँव-गाँव घूमे और इन्होंने लोगों से भूमिखण्ड दान करने की याचना की, ताकि उसे कुछ भूमिहीनों को देकर उनका जीवन सुधारा जा सके। उनका यह आह्वान जितना प्रभावी रहा, वह विस्मित करता है। वे गांधीवादी विचारों पर चले। रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों का प्रयोग किया। 1955 तक आते-आते भू-आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। श्री भावे ने चम्बल के डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया और वे विनोबा भावे से प्रभावित होकर आत्म-समर्पण के लिए तैयार हो गए। विनोबा भावे को सामुदायिक नेतृत्व के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय रेमन मैगसाय पुरस्कार व 1983 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

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