शहरों की तरह गांवों का भी किया जाये विकास

विचार : कोरोना बीमारी से विश्व परेशान है, परेशानियों के इस माहौल में भारत का शानदार प्रदर्शन रहा है। इसके बावजूद कुछ त्रुटियों को सुधारने की आवश्यकता है, जिसकी पहल राजनीतिक दलों व जनता दोनों को मिलकर करना है, वह यह कि शहर की तरह गांवों के विकास पर ध्यान दिया जाये, जिससे गांवों से पलायन रुके। छात्रों को अपना घर व मां, बाप न छोड़ना पड़े कच्ची उम्र में और हो सके तो बच्चों के बड़े होने से पहले उनकी गांवों में समुचित व्यवस्था का लाभ सरकार को देना चाहिए जिससे बच्चे मां, बाप का बुढ़ापे में सहारा बन सकें। 2020 में कोरोना काल के दौरान रोजगार की तलाश में शहरों में आये अधिकतर कामगार अपने गांव लौट आये। देश के इतिहास में यह अब तक का सबसे बड़ा पलायन था।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आग्रहों के बावजूद मकान मालिकों ने घर के किराये को लेकर कामगारों से ज्यादतियां की। जिन शहरी दुकानदारों से वे राशन लेते थे उन्होंने इस संकट की घड़ी में उधार राशन देने से मना कर दिया। जिनके यहां वे काम करते थे, उन्होंने भी ज्यादा दिन तक भोजन, पानी की व्यवस्था में असमर्थता जताई। संभ्रांत और प्रबुद्ध कहलाने वाले शहरी तबके ने उनकी ओर से अपने हाथ खींच लिए। भले ही अनेक कामगारों को एक जगह काम करते हुए दस-पन्द्रह साल हो गए थे और वे काम करने वालों के यहां परिवार के सदस्य जैसे हो गये थे। इतना ही नहीं, शहरों की एक बड़ी आबादी कामवाली बाइयों के आंचल तले जवान हुई हैं। उनके हाथ के साफ किए हुए बर्तन और बनाये हुए खाने शहरी आबादी के जीवन में घुल मिल गए हैं। बच्चे आया की छाया में बड़े हुए हैं। बच्चों में इन आया कही जाने वाली महिलाओं से अपनी मां से ज्यादा भावनात्मक लगाव है। 

गांव से आये कामगार शहरों में अपनी कार्यकुशलता के अनुसार तरह-तरह के काम करते हैं, जो शहरी दिनचर्या का एक हिस्सा हैं। शहरों में कार्यालय, माल, फैक्ट्रियां सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गांव से आए कामगार वर्ग के भरोसे ही चलते हैं। फिर भी कोरोना काल में उन्हें वहां कोई हमदर्दी नहीं मिली। ऐसे में  आवश्यकता इस बात की है कि आगे शहरों और गांवों का बराबर विकास किया जाये ताकि कभी फिर से ऐसी आपदा आने पर ऐसी अमानवीय स्थितियां न उत्पन्न हों। हालांकि इसी उद्देश्य से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत योजना चलाई, जो काफी सराहनीय है, लेकिन इस योजना में देश्वासियों को बढ़चढ़कर हिस्सा लेने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से अब तक सरकारों ने शहरों के विकास को ज्यादा तवज्जो दी है। इसलिए गांव के लोगों को काम की तलाश में शहरों की तरफ आना पड़ता है। यहां याद दिलाना आवश्यक है कि पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विधानसभा चुनाव हार गये थे क्योंकि उन्होंने​ सिर्फ शहरों के विकास पर ध्यान दिया। कोरोना काल में शहरों से दिल दहला देने वाली समस्याओं से दो चार होते अपने गांव पहुंचे कामगारों में ज्यादातर कामगार वापस नहीं जाना चाहते थे। लेकिन आय का साधन न होने के कारण वे ज्यादा दिन तक गांव में रुक नहीं पाये। उस समय राज्य सरकारें कह रही थीं कि अपने प्रदेशों में रोजगार के अवसर उत्पन्न करेंगी। वे ऐसा करतीं तो कामगारों का गांवों से पलायन रुकता। गांवों में कृषि उपजों जैसे आलू की चिप्स, टमाटर से टोमैटो सॉस, मीठी चटनी, गेहूं की आटा मिल/चिउड़ा मिल/चिउड़ा नमकीन, चावल मिल, भुना हुआ चना की पैकेजिंग, उड़द व मूंग की नमकीन, मकई का लावा, मसालों की पिसाई और पैकेजिंग आदि से संबंधित कुटीर उद्योग इसमें बेहतर भूमिका निभा सकते थे। गांव से पलायन को रोकने के लिए कई सरकारी योजनाओं की घोषणा हुई है लेकिन उनके सिरे चढ़कर गरीब तक पहुंचने में शंका है। सरकारों की बहुत सारी योजनाएं वैसे भी गांव तक पहुंचते-पहुंचते हांफने लगती हैं। 

 गांव के विकास में सबसे बड़ी बाधा कमीशनखोरी है। योजनाओं के पैसे का एक बड़ा भाग बिचौलियों और ठेकेदारों के बीच बंट जाता है। इसीलिए गांवों में बनी सड़कें एक बरसात नहीं झेल पातीं, गांवों में शौचालय, नालियों की निर्माण सामग्री को देखकर सिर पीटने को दिल करता है, आंगनबाड़ी में मिलने वाले पुष्टाहार, प्रसव के बाद मिलने वाली राशि में कमीशनखोरी का हाल किसी से छिपा नहीं है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के किस्सों की लम्बी फेहरिस्त है। गांवों के विकास के प्रति सरकारों की मंशा साफ है तो पहले इस कमीशनखोरी व भ्रष्टाचार को रोकना होगा और गुणवत्ता के लिए जवाबदेही तय करनी होगी। यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति—व्यक्ति में चेतना आये, हर व्यक्ति में ईमानदारी आये, दूसरे का छूना नहीं अपना छोड़ना नहीं, ऐसा भाव लोगों में आना जरूरी है।

 देश प्रत्येक कण मेरा है, ऐसा भाव लाना होगा, देश के प्रति दीवानगी ​विकसित करनी होगी, नहीं तो हम अपनी ही बुराई करते—करते गर्त में चले जा रहे हैं, अपनी ही बुराई का अर्थ अपने संस्कारों में कमी बताना, सनातन परम्परा का मजाक उड़ाना आदि गम्भीर बातें शामिल हैं। प्रत्येक व्यक्ति को भ्रष्टाचार छोड़ना होगा, ऐसा सम्भव है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा जाकर। तमाम संघ के विशेषज्ञों का मानना है कि संघ ऐसी प्रतिदिन की ऐसी कार्यशाला है, जो निर्मलता, उज्ज्वलता, प्रखरता व शारीरिक, मानसिक व्यक्तित्व में निखार लाता है। चाहे कोई धनी हो, गरीब हो, बड़ा हो, छोटा हो, सभी एक साथ मंडल में बैठते हैं, खेल खेलते हैं, गीत गाते हैं आदि बातें एक साथ करते हैं, जिससे एक दूसरे के प्रति आत्मीयता बढ़ती है और यही आत्मीयता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आधार है। यही एक आधार है जिससे देश फिर परम वैभव पर पहुंच पायेगा और हम सुखी व समृद्ध रह पायेंगे।


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