ज्ञान और चरित्र की गरिमा
प्रेरक कथा। महर्षि अत्रि की एक पुत्री थी, नाम था अपाला। अपाला कुछ बड़ी हुईं तो उनके शरीर पर कुष्ठ रोग हो गया। बहुत उपचार करने पर भी अच्छा न हुआ, बल्कि बढ़ता गया। पुत्री विवाह-योग्य हुई तो वर खोजा गया। उस विदुषी के ज्ञान की प्रशंसा सुनकर अनेक वर आये, लेकिन श्वेत दाग देखकर वापस लौट जाते। ऋषि शिष्य वृताश्व ने बिना कुछ पूछताछ किये ही भावावेश में पाणिग्रहण कर लिया। बाद में वृताश्व ने जब चर्म दोष देखा तो वह उदास हो गये और कभी ऋषि को, कभी अपाला को, कभी अपने आप को दोष देने लगे। किसी पर भार बनने की अपेक्षा अपाला अपने पिता के घर वापस चली आईं। उसने अपना समस्त ध्यान अध्ययन और तप में लगाया, अपाला की प्रवीणता ने उसकी गणना वरिष्ठ ऋषियों में कराई। चर्म दोष की अपेक्षा ज्ञान और चरित्र की गरिमा भारी पड़ी। बता दें कि अपाला अत्यंत ही मेधाविनी कन्या थीं। ऋषि अपने शिष्यों को जो कुछ भी पढ़ाते थे, एक बार सुनकर ही अपाला वह सब स्मरण कर लेती थीं। अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि होने पर भी अपाला अत्रि की चिन्ता का कारण थीं, क्योंकि अपाला को चर्म रोग था।
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