लोकसभा चुनाव पर विश्व समुदाय की भी नजर

विचार : इस बार का लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प है। राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर दो ही राजनीतिक दल आमने—सामने है। भारतीय जनता पार्टी और कांगे्रस हालांकि दोनों दलों की कोई तुलना नहीं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि भाजपा चाहती है कि कांग्रेस मुक्त हो भारत, जबकि कांगे्रस चाहती है कि मोदी हटाओ। देश में क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी चुनावी दंगल में बढ़चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। और सभी का एक ही लक्ष्य है मोदी को हटाओ, जबकि मोदी चाहते हैं कि राष्ट्रहित में कार्य हो। और भारत में किसकी सरकार बनेगी इसको लेकर विश्व समुदाय में भी इस बार काफी दिलचस्पी देखी जा रही है। इस बार के लोकसभा चुनाव में अमेरिका, इंग्लैंड और विभिन्न यूरोपीय देशों की ज्यादा दिलचस्पी देखी गई है। लेकिन इस बार दक्षिण-पूर्वी एशिया और खाड़ी इलाके के कई देश इसमें काफी रुचि ले रहे हैं। उन्होंने भारत में नियुक्त अपने राजनयिकों को इस काम में लगाया है, जो अपनी कूटनीतिक सीमाओं में रहते हुए चुनावों के विभिन्न कारकों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। जैसे, एक युवा राजनयिक को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह यूपी के वोटिंग पैटर्न को समझे। सबकी बड़ी जिज्ञासा चुनावों में जाति की भूमिका को लेकर है। वे जानना चाहते हैं कि जाति जैसी पुरानी सामाजिक संरचना भारत जैसी तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था और आधुनिक जीवन मूल्यों वाले समाज में आखिर किस तरह अपनी निर्णायक उपस्थिति बनाए हुए है। भारतीय समाज में जाति के पाये आखिर इतनी मजबूती से क्यों धंसे हुए हैं, इस बारे में समाजशास्त्री किसी अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाए हैं। आजादी के बाद कई संगठनों और नेताओं ने जाति तोड़ो आंदोलन चलाया पर सतह के नीचे उसका कोई खास असर नहीं हुआ। उस समय माना जा रहा था कि आर्थिक विकास के साथ यह पहचान अपने आप कमजोर पड़ती जाएगी। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद से यह फर्क तो पड़ा कि सार्वजनिक जीवन में जातिगत भेदभाव तेजी से कम हो हुआ। छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथा शहरों में पूरी तरह और गांवों में अंशत: समाप्त हो गई। सार्वजनिक दायरे में इसका कोई प्रभाव नहीं रह गया। लेकिन शादी-ब्याह में जाति की भूमिका ज्यों की त्यों बनी रही और चुनाव में इसका महत्व कम होने के बजाय बढ़ता गया। इसका कारण शायद यह है कि लगभग समान आर्थिक हैसियत वाले लोगों को अलग-अलग खेमों में गोलबंद करना कठिन होता है। ऐसे में जाति के रूप में पहले से मौजूद सुविधाजनक विभाजन का इस्तेमाल करके रातोंरात अपने वोटरों का अलग वर्ग खड़ा कर लेना पार्टियों को बहुत आसान लगता है। इस शॉर्टकट को बनाए रखने के लिए जातीय पहचान को नए सिरे से खाद-पानी मुहैया कराया जा रहा है। गनीमत है कि हमारे सिस्टम में हर किसी के लिए कुछ न कुछ उम्मीद बनी हुई है। इसके चलते बहुत सारे लोग जाति से हटकर वोट डालते हैं और जो लोग वोटिंग में जाति की अपील से प्रभावित होते हैं, वे भी बाकी समय इसको ज्यादा तवज्जो नहीं देते। जाति का प्रभाव भारतीय समाज में कितना है, इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उच्चतम न्यायालय ने दलितों पर अत्याचार करने वाले को सर्वप्रथम गिरफ्तारी से बचने पर रोक लगा दी थी, लेकिन मोदी सरकार को जनता के उपद्रव के बाद अदालत के फैसले को पलटना पड़ा और राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा, हालांकि सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देकर राजनीतिक घाव जरूर भाजपा ने पूरी करने की कोशिश की।

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