अपने दायित्वों का निर्वहन करें शिक्षक
विचार। शास्त्रों में माता, पिता व आचार्य तीनों को बालक के जीवन निर्माण में अहम माना गया है। माता, पिता उसका पालन पोषण, संवद्र्धन करते हैं तो आचार्य उसके बौद्धिक, आत्मिक चारित्रिक गुणों का विकास करता है, उसे जीवन और संसार की शिक्षा देता है। उसकी चेतना को जागरूक बनाता है। इसीलिए हमारे यहां गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, गुरु को पूज्यनीय माना गया है। आचार्य के शिक्षण, उसके जीवन व्यवहार, चरित्र से ही बालक जीवन जीने का ढंग सीखता है। आचार्य की महती प्रतिष्ठा हमारे यहां इसलिए हुई। आज हमारे यहां शिक्षक हैं, अध्यापक हैं, वे छात्रों को निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा देते हैं, किंतु सबसे महत्वपूर्ण बात जीवन निर्माण का व्यावहारिक शिक्षण आज नहीं हो पाता। आज गुरु, शिष्य शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध पहले जैसा नहीं रहा। सिर्फ कुछ अक्षरीय ज्ञान दे देने, एक निश्चित समय तक कक्षा में उपस्थित रहकर कुछ पढ़ा देने के बाद शिक्षक का कार्य समाप्त हो जाता है और पाठ पढ़ने के बाद विद्यार्थी का। मनुष्य से ही मनुष्य सीख सकता है। जिस तरह जल से ही जलाशय भरता है, दीप से ही दीप जलता है, उसी प्रकार प्राण से प्राण सचेत होता है। चरित्र को देखकर ही चरित्र बनता है। गुरु से सम्पर्क, सांनिध्य, उनके जीवन से प्रेरणा लेकर ही मनुष्य, मनुष्य बनता है। आज का शिक्षक प्राण नहीं दे सकता, चरित्र नहीं दे सकता, वह पाठ दे सकता है। इसलिए आज का छात्र किसी कार्यालय, अदालत का एक बाबू बन सकता है, लेकिन मनुष्य नहीं बन पाता। आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बहुत बड़ी खाई पैदा हो गयी है-सम्बन्धों की। यद्यपि इसका कारण आज की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियां भी हैं, लेकिन जो शिक्षक हैं, अध्यापक हैं, व्यक्तिगत तौर पर इस जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं। शिक्षक तो विद्यार्थियों की परीक्षा साल में एक बार या दो बार लेते हैं, लेकिन विद्यार्थी तो शिक्षक की परीक्षा प्रतिदिन, प्रतिघंटे, प्रतिक्षण ही लेते रहते हैं। वह आपको कक्षा में आते देखते हैं, पढ़ाते देखते हैं और फिर कक्षा के बाहर दूसरों के साथ मिलते-जुलते भी देखते हैं। विद्यार्थी जैसा आपको देखते हैं, वैसा ही स्वयं भी सीखते हैं, करते हैं। इसीलिये जैसे शिक्षक होंगे, वैसे ही विद्यार्थी भारत के ये नौनिहाल भी होंगे। सरकारी पाठ्यक्रम में यदि नैतिक शिक्षा का समावेश नहीं है तो भी उस आवश्यकता को कम से कम शिक्षक तो अनुभव करें और निजी तौर से उस सम्बन्ध में जो कुछ बन पड़ सकता है, उसे करने के लिए तत्परता बरतें, प्रयत्नशील रहें। अभिभावक की तरह अध्यापक की भी कुछ नैतिक जिम्मेदारियां हैं। जिस तरह अभिभावक बालकों के लिए रोटी-कपड़े का प्रबंध करके अपनी जिम्मेदारियों से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकते, उसी प्रकार अध्यापक भी पाठ्यक्रम की पढ़ाई पढ़ाकर उन उत्तरदायित्वों से छुटकारा नहीं पा सकते, जो अनायास उनकी गुरु गरिमा के साथ सघन रूप से जुड़ गये हैं। निर्धारित पाठ्यक्रम पूरा करते समय शिक्षक बीच-बीच में ऐसी टिप्पणियां जोड़ते रह सकते हैं, जिनसे छात्रों को अतिरिक्त दिशा मिलती रहे। वह अपनी निर्धारित पढ़ाई तो दिलचस्पी के साथ पूरी करें ही, लेकिन साथ ही यह भी उत्कंठा जाग पड़े कि उन्हेें संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियों से बचाना है। इसके लिये जिस प्रकार का मानव बनाया जाना आवश्यक है, उसे पाठ्यक्रम की विवेचना करते हुए भी हृदयंगम कराया जा सकता है। आज के शिक्षकों को अपनी शैली में परिवर्तन लाकर गुरु वशिष्ठ और गुरु द्रोणाचार्य की तरह सम्मान हासिल करने का प्रयास करना चाहिए।
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