देश में लागू करना चाहिए प्राचीन भारत की राजनीतिक व्यवस्था

विचार। भारत की राजनीतिक व्यवस्था अनंतकाल से है, भारत में सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों में देखने को मिल ही जाते हैं। विदेशी यात्रियों और विद्वानों के वर्णन में भी इन बातों के प्रमाण हैं। प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है परंतु उन्होंने वोट देने के अधिकार पर रोशनी नहीं डाली है। वर्तमान संसद की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7707 सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद के 5000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। बहुमत से लिये गये निर्णय को ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग का सहारा लेना पड़ता था। तत्कालीन समय में वोट को ‘छंद’ कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था जिसे ‘शलाकाग्राहक’ कहते थे। वोट देने के लिए तीन प्रणालियां थीं- गूढक़ (गुप्त रूप से) अर्थात अपना मत किसी पत्र पर लिखकर जिसमें वोट देने वाले व्यक्ति का नाम नहीं आता था। दूसरा था विवृतक (प्रकट रूप से)- इस प्रक्रिया में व्यक्ति सम्बन्धित विषय के प्रति अपने विचार सबके सामने प्रकट करता था, अर्थात खुलेआम घोषणा और तीसरा था संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना)- सदस्य इन तीनों में से कोई भी एक प्रक्रिया अपनाने के लिए स्वतंत्र थे। शलाकाग्राहक पूरी मुस्तैदी एवं ईमानदारी से इन वोटों का हिसाब करता था। इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश में गौरवशाली लोकतन्त्रीय परम्परा थी। इसके अलावा सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मन्त्रालयों का भी निर्माण किया गया था। उत्तम गुणों एवं योग्यता के आधार पर इन मन्त्रालयों के अधिकारियों का चुनाव किया जाता था। मौजूदा समय में भी लोकतंत्र को विश्व की सबसे बेहतर शासन प्रणाली माना जा रहा है और राजनीति को जन सेवा का माध्यम बताया जाता है, लेकिन हमारा आचरण इन्हें निरंतर सत्ता पाने और फिर उसे बनाये रखने के माध्यम तक सीमित करता नजर आता है। आने वाले समय में जिन राज्यों में चुनाव हैं, वहां अभी तक अपनी चाल और चरित्र के प्रति लापरवाह रहने वाले राजनीतिक दल और उनका नेतृत्व चेहरे बदलने की मानो प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं। चेहरे बदल कर सत्ता विरोधी भावना को ठंडे बस्ते में डालने का यह खेल नया नहीं है। अतीत में भी मतदाताओं की नाराजगी से बचने के लिए सांसद-विधायक प्रत्याशी तो अक्सर ही बदले जाते रहे हैं, कभी-कभी मंत्री-मुख्यमंत्री भी बदल कर चुनाव वैतरणी पार करने की चाल चली जाती रही है। यह चाल कितनी कारगर रही, यह शोध का विषय है, लेकिन चेहरों के साथ ही नाकामी को भुला देने की यह कवायद बदस्तूर जारी है। ज्यादा अतीत में न लौटें तो फिलहाल इसकी शुरुआत कर्नाटक से मानी जा सकती है, जहां भाजपा ने दो साल के शासन के जश्न के साथ ही उम्रदराज दिग्गज बी. एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से चलता कर दिया। बेशक येदियुरप्पा भाजपा में लागू सत्ता राजनीति के अघोषित आयु सीमा के सिद्धांत के दायरे में भी आ गये थे, इसलिए उनकी मुख्यमंत्री पद से विदाई को उससे जोड़ कर देखा-दिखाया जा सकता है, लेकिन उत्तराखंड में थोड़े से अंतराल में ही दो बार मुख्यमंत्री बदलने और गुजरात में पूरा मंत्रिमंडल ही बदल देने तथा पंजाब का मुख्यमंत्री बदले जाने की कवायद के संकेत-संदेश से साफ है कि भाजपा हो या कांग्रेस, इन दलों का आलाकमान अपनी ही राज्य सरकारों की कारगुजारियों का बोझ अगले चुनाव में उठाने को तैयार नहीं। जाहिर है, इन सरकारों के खातों में ऐसा कुछ नहीं लगा होगा, जिसके सहारे चुनाव वैतरणी पार की जा सके। उलटे जन आकांक्षाओं पर इनकी नाकामी के बोझ से पार्टी के ही डूब जाने की आशंका प्रबल नजर आयी होगी। बेशक सामान्य समझ भी यही कहती है कि नाकामी के बोझ की गठरी उठा कर चुनाव वैतरणी में नहीं उतरना चाहिए, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? इन सरकारों की नाकामियां अंतत: तो संबंधित राज्यों और उनके निवासियों पर ही भारी पड़ीं, जिसकी भरपाई का कोई तरीका नहीं है। 


 कर्नाटक के येदियुरप्पा हों या उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत अथवा गुजरात के विजय रुपाणी या फिर पंजाब के कैप्टन अमरेंद्र सिंह, इनमें से कोई भी जबरदस्ती मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जाकर नहीं बैठ गया था। इन्हें इनके दल के आलाकमान ने या फिर आलाकमान के इशारे पर विधायकों ने नेता चुना था। दोनों ही स्थितियों में निर्णय आलाकमान का ही था। मुख्यमंत्री ही क्यों, मंत्रिमंडल के सदस्य और सरकार के प्रमुख निर्णय तक आलाकमान की सहमति से ही लिये जाते हैं, तो फिर उसी आलाकमान ने नाकामी की जिम्मेदारी सिर्फ मुख्यमंत्री के कंधों पर डाल कर उन्हें चलता क्यों कर दिया? मान लेते हैं कि आलाकमान भी आखिर मानव ही हैं। उससे भी निर्णय लेने में गलती हो सकती है, लेकिन इसका अहसास चुनाव से पहले ही क्यों होता है? जैसा कि पहले भी लिखा गया है, कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का कारण अलग रहा, लेकिन उत्तराखंड से लेकर पंजाब तक नेतृत्व परिवर्तन के मूल में तो अगला चुनाव जीतने के लिए बिसात बिछाना ही है। यह तो थी बात राजनीति और राजनेताओं की, थोड़ी नजर डाल लेते हैं मतदाताओं पर। आज के मतदाता भी व्यक्ति लाभ अधिक देखते हैं, ऐसे कई मतदाता हैं जो ऐसे नेता को वोट देते हैं, जिनका राजनीतिक चरित्र बिल्कुल बेकार है, वोटर सिर्फ मत ही नहीं देते, बल्कि अपने आदर्श राजनेता के फौजदारी करने पर भी उतारू रहता है। एसे मतदाताओं की वजह से गलत प्रतिनिधि संसद, विधानसभा में पहुंचता है और गलत बातें करता है, जिससे संसद व विधानसभा की मान, मर्यादा एकदम खत्म हो जाती है, ऐसे नेता को कैसे आदर्श माना जा सकता है, जिनमें सारे अवगुण भरे हैं, बस गलत तरीके से कमाये गये पैसे के जोर पर राजनीति में भी दखल देने लगते हैं। होना तो यह चाहिए कि भारत को वैदिक युग में जाना चाहिए और भारत की प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए और राजनीतिक चरित्र नेताओं को सुदृढ़ करना होगा।
अभिषेक त्रिपाठी
8765587382



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