जन—जन के विवेकानन्द
बोधकथा : एक लम्बे समय व अनेक कठिनाइयों को बड़ी समझदारी से पार करते हुए, एक लम्बी पेचीदा प्रक्रिया को लांघते हुए, भारत के प्रधानमंत्री पं. नेहरू व मद्रास के मुख्यमंत्री श्री एम भक्तवत्सलम् की आपत्तियों का समुचित समाधान करते हुए अंतत: सितम्बर 1964 को श्री पाद शिला पर स्वामी विवेकानन्द शिला स्मारक की अपेक्षित अनुमति मिल ही गयी। मा. एकनाथ रानाडे जी जो पूर्व में संघ के सरकार्यवाह 1956—1962 तथा 1962 में अ.भा. बौद्धिक प्रमुख थे उन्हीं की सारी योजना तथा उन्हीं की मुख्यतया परिश्रम इसके पीछे था। अनुमति मिलते ही अब प्रश्न उसके लिए धन संग्रह का था। मा. एकनाथ जी को आत्मविश्वास चरम पर था। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द जी के सुन्दर चित्र वाले 1—1 रुपये के कार्ड बनवाये और उन्हें विद्यालय व महाविद्यालय के छात्र—छात्राओं में बिक्री हेतु दिया तथा साथ ही विद्यालय व महाविद्यालय के अध्यापकों व प्राचार्यों को भी आह्वान किया कि कम से कम एक ग्रेनाइट की 500 रुपये की ईंट का योगदान अवश्य होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त समाज के सुधीजनों तथा डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, व्यवसाइयों व उद्योगपतियों को भी आह्वान किया गया। इसी आधार पर लाखों रुपये की योजना में देश की 1 प्रतिशत वयस्क आबादी ने लगभग सवा करोड़ रुपयों का योगदान दिया। जो किसी भी गैर सरकारी संस्था द्वारा एकत्र किया हुआ उस समय का आबादी व राशि की दृष्टि से सबसे बड़ा अभियान था। इसमें कम्युनिस्ट, मुस्लिम व ईसाई मतावलम्बियों का भी उल्लेखनीय सहयोग रहा। एकनाथ जी की इसी योजना ने स्वामी विवेकानन्द जी को भारत के जन—जन का विवेकानन्द बना दिया।
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