नींव का पत्थर


बोधकथा : वर्ष 1928—29 की बात है। लाल बहादुर शास्त्री लोक मण्डल की जिम्मेदारियां लेकर प्रयागराज पहुंचे थे। दुबले—पतले, सिर की टोपी, पैरों में देशी जूते, हंसमुख, संकोची स्वभाव के और दलगत राजनीति से सर्वथा अलग। उनका कहना था कि अखबारी विवरणों मं उनका नाम न छपे। कुछ मित्रों ने एक दिन पूछ ही लिया—आपको अखबारों में नाम छपने से पनहेज क्यों है। कुछ पशोपेश के बाद उन्होंने बताया कि लोकसेवक मण्डल के कार्य के लिए दीक्षा का समय लाला लाजपत राय ने कहा था कि लालबहादुर! ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं। एक बढ़ियां किस्म का संगमरमर है, उसी से मेहराब और गुम्बद बने हैं, उसी से जालियां काटी गयी हैं, उसी से मीनाकाशी और पच्चीकारी की गयी है। उन्हीं में रंग—बिरंगे बेल—बूटे भी भरे गये हैं। दूसरी तरह के पत्थर हैं—टेढ़े—मेढ़े और बढ़ेंगे। वे सब नींव में दबे पड़े हैं। उनकी कोई प्रशंसा नहीं करता, लेकिन इन्हीं नींव के पत्थरों पर ताजमहल की इमारत खड़ी है। मैं चाहता हूं लोकसेवक मण्डल के आजीवन सदस्य नींव के पत्थर से खुद को बचाये रखें। मित्रों, मुझे क्षमा करें, मैं नींव का पत्थर ही रहना चाहता हूं।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                            साभार

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