सादगी की प्रतिमूर्ति श्री लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े


परिचय
: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को विश्वव्यापी रूप देने में अप्रतिम भूमिका निभाने वाले श्री लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े का जन्म अकोला, महाराष्ट्र में 1918 में हुआ था। उनके पिता श्री श्रीकृष्ण भिड़े सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्यरत थे। छात्र जीवन से ही उनमें सेवाभाव कूट—कूट कर भरा था। 1932—33 में जब चन्द्रपुर में भयानक बाढ़ आयी तो अपनी जान पर खेलकर उन्होंने अनेक वरिवारों की रक्षा की। एक बार मां को बिच्छू के काटने पर उन्होंने तुरंत अपना जनेऊ मां के पैर में बांध दिया। इससे रक्त का प्रवाह बंद हो गया और मां की जान बच गयी। चंद्रपुर में उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे बाबा साहब आप्टे से बहुत प्रभावित थे। 1941 में वे प्रचारक बने तथा 1942 में उन्हें लखनऊ भेज दिया गया। 1942 से 57 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों एवं दायित्वों पर रहते हुए कार्य किया। 1957 में उन्हें कीनिया भेजा गया। 1961 में वे फिर उत्तर प्रदेश में आ गये। 1973 में उन्हें विश्व विभाग का कार्य दिया गया। इसके बाद बीस साल तक उन्होंने उन देशों का भ्रमण किया, जहां हिंदू रहते हैं।
विदेशों से हिंदू हित एवं भारत हित में उन्होंने अनेक संस्थाएं बनाईं। इनमें 1978 में स्थापित फ्रेंड्स आफ बीजेपी का गठन कर कांग्रेसी षड्यंत्र को विफल किया। जब मॉरीशस के चुनाव में गुटबाजही के कारण हिंदुओं की दुर्दशा होने लगी, तो उन्होंने सबको बैठाकर समझौत कराया। इससे फिर से हिंदू वहां विजयी हुए।
शरीर से बहुत दुबले भिड़े जही सादगी की जीवंत प्रतिमूर्ति थे। उनका खर्चा भी बहुत कम होता था। विदेश प्रवास में कार्यकर्ता जहबरन उनकी जेब में कुछ डॉलर डाल देते थे, पर लौटने पर वह वैसे ही रखे मिलते थे। वैश्विक प्रवास में ठण्डे देशों में वे कोट—पैंट पहन लेते थे, पर भारत में सदा वे धोती—कुर्ते में ही नजर आते थे। 1992 में वे दीनदयाल शोध संस्थान के अध्यक्ष बने। वहां उनके कक्ष में लगे वातानुकूलन यन्त्र को उन्होंने कभी नहीं खोला। उस कक्ष की आल्मारियां सदा खाली ही रहीं, क्योंकि उनके पास निजी सामान कुछ विशेष था ही नहीं। निरंतर कष्टपूर्ण प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। अंतिम कुछ महीनों में उन्हें गले सम्बन्धी अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गयीं। इस कारण उनकी वाणी चली गयी। बहुत कठिनाई से कुछ तरल पदार्थ उनके गले से नीचे उतरते थे। फिर भी वे सबसे प्रसन्नता से मिलते थे तथा स्लेट पर लिखकर वार्तालाप करते थे।
दिसम्बर 2000 में मुम्बई में विश्व संघ शिविर हुआ। खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे वहां गये। विश्व भर के हजारों परिवारों में उन्हें बाबा, नाना, काका जैसा प्रेम और आदर मिलता था। यद्यपि वे बोल नहीं सकते थे, पर सबसे ​मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। वहां सबके नाम लिखा उनका एक मार्मिक पत्र पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने सबसे विदा मांगी थी। उन्होंने संत तुकाराम के शब्दों को दोहराया—आमी जहातो आपुल्या गावा, आमुचा राम—राम ध्यावा। पत्र पढ़ और सुनकर सबकी आंखों भीग गयीं। शिविर समाप्ति के एक सप्ताह बाद सात जनवरी 2001 को उन्होंने सचमुच ही सबसे विदा ले ली।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वृष राशि वालों के लिए बेहद शुभ है नवम्बर 2020

26 नवम्बर 2020 को है देवउठनी एकादशी, शुरू होंगे शुभ कार्य

15 मई से सूर्य मेष से वृषभ राशि में जाएंगे, जानें किन राशियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा