महान गुण है कृतज्ञता
विचार : हमें दूसरों से क्या नहीं मिला, इस पक्ष पर यदि विचार करें तो प्रतीत होगा कि कंजूसी कर ली गई और जितना वे दे सकते थे, उतना नहीं दिया। ऐसी दृष्टि से हमें दूसरों की उदारता पर उंगली उठाने और उन्हें कृपण कहने के पर्याप्त प्रमाण मिल जाएंगे। ऐसी दशा में अपना क्षोभ, रोष और असंतोष ही बढ़ेगा। विचार करने का एक दूसरा पहलू भी है और वह यह कि जो मिला, वह कितना अधिक है। यदि इतना भी न मिलता तो हम क्या कर सकते थे। जबरदस्ती तो किसी को भी कुछ देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। हमारा कुछ ऋण या दबाव तो था नहीं, जो दिया गया वह प्रेम, उदारता और सौजन्य से ही दिया गया है। ऐसी दशा में यदि स्वल्प मिला तो भी उससे असंतुष्ट क्यों होना चाहिए। जिन्होंने दिया, उन्हें दोष क्यों देना चाहिए। इस धरती पर असंख्य ऐसे हैं, जिनसे हमारा कोई परिचय—संबंध नहीं, उनसे किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं मिलता। जब हम कुछ भी न देने वालों पर रोष नहीं करते तो थोड़ी सहायता करने वालों से ही रूष्ट क्यों हों!
स्वजन, सम्बन्धियों, मित्र, हितैषियों के और स्त्री, पुत्रों, अभिभावकों के द्वारा प्रदत्त अनुदानों का लेखा जोखा संग्रह करें, उनकी निरंतर जो सहायता, सद्भावना मिलती रही हैं, उनका मूल्यांकन करें तो बूंद—बूंद करके भी वे घड़े भरकर हो जाती हैं। वे इससे भी अधिक क्या कर सकते थे और उन्होंने क्या नहीं किया—यह सोचना निरर्थक है। हम उनकी कठिनाइयों को नहीं जानते। संभव है कि उन्होंने अपनी स्थिति में उतना भी बहुत कष्ट सहकर और आत्मनिग्रहपूर्वक किया हो। हमारी एकाकी सहायता ही तो एकमात्र उनके सामने नहीं थी। अन्य समस्याओं का भी सामना करना पड़ा होगा और उन कार्यों में भी अपना चित्त, समय तथा धन लगाना पड़ा होगा। संभव है कि जो उन्होंने अपनी स्थिति में किया, वही उस समय समुचित रहा हो। ऐसी दशा में बिना परिस्थितियों का सही मूल्यांकन किए उन्हें दोष देना उनके साथ अन्याय करना है।
माता—पिता की सहायता पर्वत के समान है। उन्होंने कितना नि:स्वार्थ स्नेह और सहयोग प्रदान किया। वस्तुओं का मूल्य आंका जाता है, पर प्रेम और ममता तो अमूल्य है। जिनके रक्त—मांस से अपना शरीर बना और पोषित हुआ, उनका उपकार कैसे भुलाया जा सकता है। भाई—बहन कितना विश्वास और सौजन्य प्रदान करते रहे। परिवार के भरे—पूरे उद्यान में से हरेक ने अपने—अपने ढंग से जो दिया, वह थोड़ा—थोड़ा करके भी बहुत हो जाता है। पत्नी की सेवा—सहायता और सद्भावना में जो आत्मीयता और समर्पण बुद्धि घुली चली आ रही है, उसे शब्दों में नहीं सराहा जा सकता। उसके लिए जन्म जन्मांतरों तक हमें कृतज्ञ रहना चाहिए। बच्चों ने सूनेपन को कैसे विनोद, उल्लास से भर दिया, उनका एहसान भी कम नहीं है।
अध्यापक जिन्होंने शिक्षा प्रदान की, चिकित्सक जिन्होंने रोगों से छुड़ाया, मित्र जिन्होंने अनेक प्रकार के प्रयोजन पूरे किए, क्या धन्यवाद के पात्र नहीं हैं। अनादिकाल से हमारे पूर्वज जो ज्ञान संचित करते चले आ रहे हैं, उसी का लाभ लेकर तो हम साधन सम्पन्न हो रहे हैं। एकाकी व्यक्ति तो लिखने—पढ़ने, बोलने और सोचने से भी वंचित रह जाएगा। आहार—विहार की, आजीविका—मनोरंजन की, यश वैभव की जो सुविधाएं हमें प्राप्त हैं, उनमें असंख्य व्यक्तियों का श्रम और योगदान है। कितना मिला, कितनों से मिला, इसका लेखा जोखा लेते रहें तो प्रतीत होगा यह संसार उदार देवमना सज्जनों से भरा पड़ा है। उनके प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए, ऋण चुकाने के लिए तत्पर होना चाहिए। यह दृष्टि हमारी उन समस्त शिकायतों को निरस्त कर देती है, जिसमें हर व्यक्ति को कृपण ठहराया गया था।
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