जीवन को भारभूत न बनायें



विचार :  एक कहावत है कि निश्चिन्त मन, भरी थैली से अच्छी है। वस्तुत: चिन्ता वह अग्नि है जिसमें हंसते—खिलखिलाते जीवन झुलस जाते हैं और बुद्धि कुं​ठित हो जाती है। मनोचिकित्सकों ने आधुनिकतम खोजों के आधार पर मन तथा शरीर पर चिन्ता का दुष्प्रभाव को सिद्ध किया है। उनका कथन है कि चिन्ता एक ऐसी हथौड़ी है, जो मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतु जाल को विघटन करके उसकी कार्यक्षमता को नष्ट कर देती है। जिस प्रकार एक ही स्थान पर निरन्तर पानी की बूंदें गिरते रहने से वहां गड्ढा हो जाता है उसी प्रकार मन में किसी बात की निरन्तर चिंता रहने से मस्तिष्क का स्नायु समूह घायल हो जाता है और उसकी कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। एक चिकित्सका का कथन है कि चिन्ता का शरीर पर वही प्रभाव पड़ता है जो एक बंदूक की गोली या तलवार के घाव का। अंतर केवल इतना ही है कि गोली तथा तलवार शीघ्र ही मार डालते हैं परन्तु यह पिशाचिनी धीरे—धीरे करके मारती है। वस्तुत: चिन्ता एक प्रकार का पागलपन ही है। अधिकांश व्यक्ति भूत और भविष्य की चिन्ता में स्वयं को घुला डालते हैं। परन्तु जो बीत गई उसके विषय में सोचना ही क्या। बीता सो बीत ही गया, उस पर पश्चाताप करने से क्या लाभ। बीती हुई बातों को सोच—सोचकर कुढ़ने से तो केवल अपना शरीर जलता ही है। भविष्य के विषय में चिंतित होना भी निरी मूर्खता है। उस पर अपना वश भी क्या। हां, उसे उज्ज्वल बनाने को रचनात्मक कार्यक्रम अवश्य बनाये जा सकते हैं। भविष्य के विषय में विश्वसात्मक अशुभ चिंतन हमें विनाश के गर्त में ले जाने वाला अग्रदूत है। अच्छा हो हम वर्तमान पर ही पूरा ध्यान दें, उसका पूरा—पूरा उपयोग करें और उससे लाभ उठायें, व्यर्थ की अनावश्यक चिन्ताओं में उसे नष्ट न करें। सुप्रसिद्ध विचारक स्वेट मार्डेन की कितनी सुन्दर उक्ति है—अनदेखी मुसीबतों की चिन्ता करने की अपेक्षा क्यों न अपने वर्तमान सुखों पर आनन्द मनाया जाये! क्यों न इसके विपरीत अपनी आत्मा को आने वाले सुखों और हर्षों के विचार से आनंदित किया जाये!
यदि यह विश्लेषण करें कि जो चिन्तायें हम करते हैं उनमें कितना सार है तो पायेंगे कि अधिकांशत: चिन्तायें तो अवास्तविक हैं। हम अपनी दिन भर की चिन्ताओं को लिपिबद्ध कर लें और फिर देखें कि कौन सी चिन्ताएं ऐसी हैं जो करने योग्य हैं तो पता लगेगा कि अधिकतर चिंताएं तो चिंता न करने योग्य हैं। 


इस प्रसंग में एक ग​ड़रिये की लड़की की कहानी याद आती है। वह प्रतिदिन तख्ते पर चलकर, नदी पार करके गायें चराने जाती थी। एक दिन वह घर लौटी तो उसकी आंखें बुरी तरह लाल पड़ी हुई थीं और मुंह सूजा हुआ था। मां ने कारण पूछा तो बोली आज तख्ता पर करते हुए मैं सोच रही थी कि जब मेरी शादी हो जायेगी और बच्चा भी हो जायेगा तो वह बच्चा चारागाह से मेरे पीछे—पीछे आने की कोशिश करेगा। वह किसी दिन तख्ते से गिरकर डूब जायेगा। हम सब ग​ड़रिये की लड़की की तरह अनावश्यक चिन्ताओं से अपनी शक्ति सामथ्र्यों को नष्ट करते रहते हैं। कोई बड़ा संकट—चाहे वह कितनी जल्दी क्यों न आने वाला हो—उसके विषय में चिन्ता नहीं करनी चाहिए अपितु बुद्धिमानीपूर्वक उसका हल सोचना चाहिए। चलना चाहिए जीवन का एक नियम बना कर कि जब तक सचमुच पुल पार न करना पड़े यह नहीं सोचेंगे कि वह कैसे पर होगा। जो कल से डरता है। उसे अपने ऊपर और भगवान पर विश्वास नहीं। यह संसार आंसुओं की घाटी नहीं है अपितु संतोष का उपवन है। जो मनुष्य सदैव अपने दुर्भाग्य को कोसने में लगे रहते हैं, उनके भाग्याकाश से विपत्तियों के बादल कभी हटते नहीं। अच्छा हो हम अपनी वर्तमान परिस्थितियों से संतोष करना सीखें तथा आध्यात्मिक उन्नति की लालसा लेकर निरंतर बढ़ते रहें।
 

                                                                                                                                                            साभार

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