दया नहीं, संवेदना और सहयोग
विचार : महानगरी मुम्बई की पटरियों पर एक अंधा भिखारी गीत गा—गाकर भीख मांग रहा था। उसका कंठ बहुत मधुर था। हजारों लोग रोज भीख मांगते हैं, किसको किस पर ध्यान देने का समय रहता है, सो उस पर ही कौन ध्यान देता। बहरहाल इतना जरूर था कि लोग उसके मधुर कंठ से आकर्षित होकर थोड़ा ठिठक जाते थे। वह जो कुछ गा रहा था, उन पंक्तियों में उसकी नेत्रहीनता के साथ दया की याचना भी थी। उसकी मधुर आवाज, गीत में भरी याचना भी थी। उसकी मधुर आवाज, गीत में भरी याचना से द्रवित होकर कोई—कोई रुकता और दो—तीन पैसे उसके सामने रखे बरतन में डाल जाता था। जिस स्थान पर बैठा वह अंधा भिखारी भीख मांग रहा था, उसी स्थान पर एक कार आकर रुकी कार में बैठे थे विश्वप्रसिद्ध संगीतकार सिगप्रिड जान्सन जो स्वयं भी अंधे थे। उन्होंने ड्राइवर से कहा—देखो क्या माजरा है, कौन इतने मधुर कंठ से क्या गा रहा है। ड्राइवर कर से उतरा और देखकर आया तो उसने सारी बातें बताई। जोन्सन ने पूछा— क्या इस देश में अंधे व्यक्तियों को भीख मांगकर गुजारा करना पड़ता है। लगता तो ऐसा ही है, मान्यवर! ड्राइवर ने कहा और गाड़ी स्टार्ट कर दी। गाड़ी अपने स्थान से आगे बढ़ी और तेज गति से मुम्बई की सड़कों पर दौड़ने लगी। उससे भी तेज गति से मुम्बई की सड़कों पर दौड़ने लगी। उससे भी तेज गति के साथ दौड़ रहा था—जोन्सन का मस्तिष्क। वे सोच रहे थे कि क्या यह मनुष्य समाज की गरिमा के अनुरूप है कि अपंग, अंधे और शरीर से लाचार व्यक्ति अपने ही भाइयों की दया पर आश्रित रहें। गर्हित है वह समाज जो अपने अपंग, असमर्थ सदस्यों के लिए सम्मानित जीवन की कोई व्यवस्था न कर सके और पराजित है वह व्यक्ति, जिसमें शारीरिक असमर्थता के प्रति अपनी महान विराट आत्मा के प्रति विश्वास हट गया है।
अंधे, अपंगों के प्रति लोगों के मन में दया का नहीं, सहानुभूति और सहयोग का भाव उत्पन्न हो, इसके लिए सिगप्रिड जोन्सन ने कुछ करने का निश्चय किया। वे स्वयं भी जन्म से अंधे थे, पर जिस परिवेश में रहने का उन्हें अवसर मिला था, उसने उनके हृदय में इतना विश्वास उत्पन्न कर दिया था कि वे आत्मनिर्भर होकर सम्मान के साथ जीवन—निर्वाह कर सकें। जोन्सन का कंठ सुरीला तो था, किसी ने उन्हें संगीत सीखने की प्ररेणा दी। साधना ने उनके कंठ को और भी सुरीला बना दिया। उनकी संगीत प्रतिभा निखरी और उन्होंने अपने मूल देश में जहां—तहां संगीत कार्यक्रम आयोजित किए। उनकी ख्याति देश—काल की सीमाओं को लांघकर विश्व भर में फैल गई और वे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न देशों की यात्राएं करने लगे। जगह—जगह से उन्हें निमंत्रण प्राप्त होते थे। इन्हीं यात्रा कार्यक्रमों के अंतर्गत एक बार वे भारत आये और भारत में जब उन्होंने देखा कि यहां अंधों की स्थिति अन्य दूसरे अपंगों से भी बुरी है, तो उनकी आत्मा द्रवित हो उठी। उन्होंने निश्चय किया कि वे भारत में एक ऐसा आश्रम स्थापित करेंगे, जिसमें रहकर अंधे व्यक्ति सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सकें। अपने स्वप्न को साकार करने के लिए उन्होंने संगीत कार्यक्रमों की एक देशव्यापी श्रृंखला बनाई और अपनी स्वरमाधुरी से जन—मन को निनादित किया। उनके संगीत कार्यक्रमों में श्रोता टूट पड़ते थे। उससे होने वाली सम्पूर्ण आय को उन्होंने अंधाश्रम की व्यवस्था के लिए सुरक्षित रखा तथा दक्षिण भारत के ऐलम जिले के तिरुपड़ गांव में एक विशाल आश्रम की योजना को मूर्तरूप देते रहे। उन्होंने आश्रम को करीब डेढ़ लाख रुपया अपनी ओर से दिया। आज आश्रम से सैकड़ों व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर अपने लिए सम्मानित जीविका कमा रहे हैं।
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