लोकरंजन के माध्यम अपनी जिम्मेदारी समझें


विचार : भारतवर्ष में सर्वप्रथम चलचित्र 1913 में दादा साहब फालके ने बनाया था तब से आज तक भारतीय फिल्म उद्योग निरन्तर उन्नति करता जा रहा है। उनके निर्यात से केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों को पर्याप्त आय हो जाती है। यों इस बात पर गर्व भी किया जा सकता है कि भारतीय सिनेमा उद्योग संसार के फिल्म सिनेमा उद्योग में द्वितीय स्थान रखता है। यदि वर्तमान अमर्यादित फिल्मों के दुष्परिणाम पर दृष्टि डालें तो लज्जा ही अनुभव करनी पड़ती है। अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ेगा कि आज नब्बे प्रतिशत फिल्में ऐसे बन रही हैं जिनसे पारिवारिक—सामाजिक वातावरण दूषित बनता है तथा अपराधों में वृद्धि होती है। उन्हें देख—देखकर छोटी—छोटी आयु के बालक बालिकाओं में भी अनैतिक छोटी—छोटी आयु के बालक बालिकाओं में भी अनैतिक और मानसिक पतन की स्थिति आ जाती है। आज विद्यार्थियों का जीवन जितना अनुशासन विहीन और अमर्यादित हो रहा है, उसका बहुत बड़ा दोष सिनेमा पर ही है। दूषित चलचित्रों को देखकर युवक पाकेटमार, जाल—साज, चोर और शराबी तक बन जाते हैं और इससे भी एक कदम आगे बढ़कर उनका नैतिक पतन भी हो जाता है। 


युवक युवतियों में कामुकता की भावनाओं को उत्तेजित करने के लिये अब चुम्बन के दृश्यों को बढ़ावा दिया जाने लगा है। कुछ निर्माताओं का तो यहां तक कथन है कि ऐसा न करना पिछड़ेपन की निशानी है। चलचित्रों में अब बलात्कार के दृश्य, पात्रों का अश्लील प्रस्तुतीकरण नारी पात्रों के अद्र्ध नग्न शरीर का प्रदर्शन ये सब बातें अत्यन्त सामान्य हो गयी हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि यौन अपराध दिन—दूने रात चौगुने बढ़ते जा रहे हैं जो राष्ट्र के शुभ चिंतकों के लिये चिंता का विषय बन गये हैं। सेंसर बोर्ड को यह कर्यभार सौंपा गया था कि वह उन चलचित्रों का प्रदर्शन होने दे जो भारतीय समाज की नैतिक मान्यताओं के प्रतिकूल हों। जिनमें घटिया सेक्स, बलात्कार, वेश्यावृत्ति, नग्न शरीर या कामोत्तेजक शारीरिक आकृति दिखलायी गयी हो। परन्तु आज फिल्म निर्माता और सेंसर बोर्ड दोनों ही देशद्रोह पर तुले हुए हैं और इनकी सांठगांठ के कारण ही उपरोक्त उद्देश्य को ताक पर रख दिया गया है। दूषित फिल्मों की अब अति हो चली। उनके पोस्टर खुलेआम दिखाई पड़ते हैं, समाचार पत्रों में छपते हैं। हमें ऐसी फिल्में नहीं चाहिए, जिनमें बेहूदे गाने, भद्दे मजाक और कामोद्दीपन के दृश्यों के अतिरिक्त और कुछ न हो। आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा उद्योग के वर्तमान रूप में आवश्यक परिवर्तन कर उसे कल्याणकारी शिक्षा और स्वस्थ संस्कारों का माध्यम बनाया जाये। 


फिल्म निर्माताओं का यह दायित्व है कि वह समाज और देश के हित को दृष्टिगत रखकर दूषित चित्रों के निर्माण का मोह त्याग दें। यह सोचना ही चाहिये कि चांदी के चंद टुकड़ों से वे अपनी जेबें तो जरूर भर लेंगे परन्तु इससे देश की नैतिक, सामाजिक और चारित्रिक उन्नति पर तीव्र कुठाराघात होगा। उन्हें चाहिए कि वे जन रुचि को परिष्कृत करने तथा स्वस्थ वातावरण का निर्माण करने वाली फिल्में बनाने की ही प्रतिज्ञा लें, भले ही लाभांश में कमी भी हो जाये। यही चित्र टेलीविजन पर भी लागू होती है। देर रात को वयस्क फिल्म दिखाने का शुभारंभकर न जाने कौन सा पुण्य कमाया जा रहा है, समझ में नहीं आता। क्या नीति निर्माता यह भी नहीं जानते कि वे जनसंचार के माध्यम को दूषित कर स्वयं अपने, परिवार व समाज के पतन को कितना निकट ला रहे हैं। आशा करनी चाहिए कि समझदारों की सोयी समझ जल्दी जागेगी एवं फिल्म टी.वी. माध्यमों में वांछित परिवर्तन शीघ्र आएगा।

                                                                                                                                                         
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