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मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रणाम लेने का अधिकार

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बोधकथा : ब्राह्मण पुत्र ब्रह्मचर्याश्रम पूरा करके घर लौटा। आंगन में जाकर माता के चरण स्पर्श किए और पूछा—पिताजी कहां हैं! माता ने कहा—वे अंदर हैं। पुत्र अंदर गया लेकिन पिताजी वहां नहीं थे और पीछे का दरवाजा खुला हुआ था, जैसे वे वहां से कहीं चले गए हों। कई वर्ष बीतने पर उसके पिता घर लौटे। पुत्र ने पूछा—पिताजी आप हमें छोड़कर इतने दिनों कहां चले गए थे! पिता ने कहा कि पुत्र जब तुम अपनी शिक्षा—दीक्षा पूर्ण करके घर आए थे तो मैंने तपस्या से जगमगाते हुए तुम्हारे ललाट को देखा, उस समय मुझे लगा कि मैं तुम्हारा प्रणाम स्वीकार करने के योग्य नहीं हूं, इसलिए तपस्या करने के लिए वन चला गया था। एक तपस्वी का प्रणाम ग्रहण करने योग्य पात्रता अर्जित करने के बाद लौट आया। अब तुम सहर्ष मेरे चरण छूकर आशीर्वाद ले सकते हो। वस्तुत: प्रणाम लेने का अधिकार उसे है, जो प्रणाम करने वाले से अधिक योग्य हो।

एकता का महत्व

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बोधकथा : एक दिन इंद्रियों में इस बात को लेकर ठन गई कि कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क ने सबसे पहले बोलना शुरू किया और कहा कि यदि मस्तिष्क काम न करे तो मनुष्य पशु के समान हो जाएगा, उसकी बात बीच में काटते हुए हृदय बोला कि यदि हृदय धड़कना बंद कर दे तो पशु होना भी किसी काम का नहीं। हाथ—पैर कहां पीछे रहने वाले थे, वे उसी व्यग्रता के साथ बोले कि हाथ—पैर न हों तो धड़कते हृदय और चलते मस्तिष्क का रहना एकदम व्यर्थ है। एक स्थान पर बैठे रहें, लेकिन कार्य कोई न कर पाएं, ऐसा जीवन भी कोई जीवन है। वाद—विवाद का कोई परिणाम न निकलता देख विधाता के यहां गोष्ठी का आयोजन किया गया। सभी अंग एवं इंद्रियां अपने—अपने पक्ष की बातें लेकर वहां पहुंचे और उनको प्रस्तुत करने के बाद विधाता की ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगे। विधाता मुस्कुराए और बोले कि तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर तो तुम्हें तुम्हारी बहस में ही मिल गया था। अंग एवं इंद्रियां यह सुनकर आश्चर्य से बोले—ऐसा कब हुआ था प्रभु, विधाता ने कहा— जब तुम सभी अपने अपने पक्ष रख रहे थे तो ये नहीं समझे कि तुम में से एक के बिना भी शरीर का उपयोग क्या है! तुम सब के साथ ...

कुटिल गीदड़ और बकरी

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बोधकथा : सुंदरवन में कुटिलराज नाम का एक गीदड़ रहा करता था। नाम के अनुसार, वह अपनी कुटिलता के लिए कुख्यात था। एक दिन वह शिकारियों द्वारा खोदे गए गड्ढे में गिर गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह बाहर न निकल सका। थक—हारकर वह वहीं बैठ गया था कि उसे एक बकरी की आवाज सुनाई पड़ी, जिसे सुनते ही उसने तत्काल एक योजना बनाई। वह बकरी को पुकार कर बोला— बहन, जरा देखो, यहां कितनी हरी—हरी घास और मीठा पानी है। यहां आओ और इस हरियाली का जी भर कर लाभ उठाओ। कुटिलराज गीदड़ की बातें सुनकर वह सीधी बकरी गड्ढे में कूद गई। उसके कूदते ही गीदड़ बकरी की पीठ पर चढ़कर बाहर कूद गया और फिर बकरी को सम्बोधित करते हुए बोला—तुम तो मूर्ख की मूर्ख ही ठहरी। खुद ही गड्ढे में करने आ गई। बकरी उसी निश्चिंतता के साथ बोली— भाई गीदड़ मैं तो परोपकार करते हुए मर जाने को ही धर्म समझती हूं। शिकारियों के लिए तो मैं किसी काम की नहीं, मुझे तो वे शायद वैसे ही निकाल लें, लेकिन इस संवेदनहीनता के साथ तुम किसको अपना बना पाओगे, ये तुम्हें जरूर सोचना चाहिए। बकरी की बातें गीदड़ के हृदय में चुभ गईं और उसने अपने जीवन की राह बदल ली।

कोयल और कौआ

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बोधकथा : छोटे बालक ने मां से पूछा कि मां, कोयल और कौआ दोनों काले होते हैं लेकिन लोग कौए को मारते हैं और कोयल को प्यार क्यों करते हैं। मां ने बेटे से कहा कि सम्मान रूप के आधार पर नहीं, गुणों के आधार पर मिलता है। कोयल मीठी वाणी बोलती है और अपनी इन्हीं भावनाओं की मधुरता के कारण वह सबकी प्रिय बन गई है, जबकि कौआ अप्रिय वचन बोलने के कारण स्वार्थी व धूर्त माना जाता है और जनसामान्य के सम्मान से वंचित रह जाता है। रूपवान अपने रूप के कारण दूसरों को क्षणिक रूप से आकर्षित जरूर कर सकते हैं, लेकिन दीर्घ समय तक सम्मान के अधिकारी तो गुणवान ही होते हैं। सच ही किसी ने कहा है कि मधुर बोलने वाले का मिर्चा भी बिक जाता है और कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता।

राजा ने किसान से ली सीख

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बोधकथा : एक राजा अत्यंत चिंतित एवं उदास रहा करता था। चिकित्सकों ने उसे प्रसन्न करने के बहुत प्रयास किए, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। किसी ने सुझाव दिया कि यदि राजा को किसी सुखी व प्रसन्न व्यक्ति का कुर्ता पहना दिया जाए तो राजा सुखी और प्रसन्न हो जाएंगे। राज्यकर्मी तुरंत ही ऐसे व्यक्ति की खोज में जुट गए। संयोगवश एक प्रसन्न व्यक्ति उन्हें मिल भी गया। राज्यकर्मी उसे राजा के पास लेकर पहुंचे, उसे देखते ही राजा खुशी से चीखा और बोला—लाओ जल्दी से अपना कुर्ता मुझे दे दो, मैं उसे पहन लूं। वह व्यक्ति बोला—राजन! मैं तो साधारण सा किसान हूं, कुर्ता तो क्या मैंने जीवन में एक अंगोछा भी नहीं देखा है, लेकिन जो मुझे मिला है, उससे मैं संतुष्ट हूं और उसी में प्रसन्न हूं। राजा की समझ में आ गया कि संतोष ही सुख का कारण है।

उत्तम परिणाम के लिए सही प्रयास जरूरी

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बोधकथा : स्वामी रामकृष्ण परमहंस से एक बार उनके शिष्यों ने जिज्ञासा व्यक्त की कि जब अवतारी सत्ताएं आती हैं तो उनके शिष्यों में एकरूपता क्यों नहीं होती। किसी का आध्यात्मिक विकास ज्यादा होता है, किसी का कम, यदि अवतारी चाहें तो क्या सबकी समान आत्मिक प्रगति नहीं करा सकते। रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया कि संसार में कर्मफल विधान का नियम है। हर व्यक्ति अपने द्वारा किए कर्मों के अनुसार प्रगति करता है, माध्यम चाहे कोई भी बने और अवतारों का कार्य बीज डाल जाना है, फिर वह चाहे जब भी फलित हो। छत पर बीज डला रह जाए तो घर ढह जाने पर भी उस बीज से पेड़ पैदा हो जाता है। कौन से बीज का पेड़ बनेगा यह उस बीज की संकल्पशक्ति पर निर्भर है। ठीक वैसे ही अवतार सब पर अनुग्रह करते हैं, लेकिन उसका फल वही पाते हैं, जो उसके लिए स्वयं भी संघर्ष करते हैं।