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सितंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सहकारिता अपनाना जरूरी

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  विचार : सब मिल—जुलकर आदर्श के पथ पर एक साथ, एक लक्ष्य की ओर बढ़ें, यही वेद भगवान की आज्ञा है। समानो मंत्र: समिति: समानी, समानं मन: सह चित्तमेषाम। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये व:, समानेन वो हविषा जुहोमि।। भावार्थ : सभी मनुष्यों के विचार समान हों, सब संगठित होकर रहें। सबके मन, चित्त तथा यज्ञकार्य समान हों अर्थात सब मिलजुलकर रहें। जिस प्रकार समाज में दो व्यक्ति एक—सी शक्ल—सूरत के नहीं होते, उसी प्रकार लोगों के विचार विश्वास और स्वभाव भी भिन्न भिन्न होते हैं। समाज में गोरे—काले, छोटे—बड़े, बच्चे—बूढ़े, स्त्री—पुरुष, गरीब—अमीर सभी एक साथ रहते हैं। एक के बिना दूसरे का काम भी नहीं चलता। फिर अपने भिन्न विचारों में भी उदारता का समावेश करके यदि सभी मिलजुलकर रहें तो चारों ओर सुख, शांति, एकता और उन्नति का वातावरण जाग उठे। विचारों की शक्ति बहुत ही महान है। ये लोगों के चिंतन और चरित्र को दिशा देते हैं। समाज में फैला वैचाारिक प्रदूषण ही यज्ञीय भावना के स्थान पर स्वार्थजन्य आचरण की ओर लोगों को प्रेरित करता है। संसार में आज हर व्यक्ति दु:खी दिखाई देता है। इसका कारण उसकी अपनी परेशानी तो है, पर अधिकत...

दया नहीं, संवेदना और सहयोग

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विचार : महानगरी मुम्बई की पटरियों पर एक अंधा भिखारी गीत गा—गाकर भीख मांग रहा था। उसका कंठ बहुत मधुर था। हजारों लोग रोज भीख मांगते हैं, किसको किस पर ध्यान देने का समय रहता है, सो उस पर ही कौन ध्यान देता। बहरहाल इतना जरूर था कि लोग उसके मधुर कंठ से आकर्षित होकर थोड़ा ठिठक जाते थे। वह जो कुछ गा रहा था, उन पंक्तियों में उसकी नेत्रहीनता के साथ दया की याचना भी थी। उसकी मधुर आवाज, गीत में भरी याचना भी थी। उसकी मधुर आवाज, गीत में भरी याचना से द्रवित होकर कोई—कोई रुकता और दो—तीन पैसे उसके सामने रखे बरतन में डाल जाता था। जिस स्थान पर बैठा वह अंधा भिखारी भीख मांग रहा था, उसी स्थान पर एक कार आकर रुकी कार में बैठे थे विश्वप्रसिद्ध संगीतकार सिगप्रिड जान्सन जो स्वयं भी अंधे थे। उन्होंने ड्राइवर से कहा—देखो क्या माजरा है, कौन इतने मधुर कंठ से क्या गा रहा है। ड्राइवर कर से उतरा और देखकर आया तो उसने सारी बातें बताई। जोन्सन ने पूछा— क्या इस देश में अंधे व्यक्तियों को भीख मांगकर गुजारा करना पड़ता है। लगता तो ऐसा ही है, मान्यवर! ड्राइवर ने कहा और गाड़ी स्टार्ट कर दी। गाड़ी अपने स्थान से आगे बढ़ी और तेज गत...

लोकरंजन के माध्यम अपनी जिम्मेदारी समझें

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विचार : भारतवर्ष में सर्वप्रथम चलचित्र 1913 में दादा साहब फालके ने बनाया था तब से आज तक भारतीय फिल्म उद्योग निरन्तर उन्नति करता जा रहा है। उनके निर्यात से केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों को पर्याप्त आय हो जाती है। यों इस बात पर गर्व भी किया जा सकता है कि भारतीय सिनेमा उद्योग संसार के फिल्म सिनेमा उद्योग में द्वितीय स्थान रखता है। यदि वर्तमान अमर्यादित फिल्मों के दुष्परिणाम पर दृष्टि डालें तो लज्जा ही अनुभव करनी पड़ती है। अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ेगा कि आज नब्बे प्रतिशत फिल्में ऐसे बन रही हैं जिनसे पारिवारिक—सामाजिक वातावरण दूषित बनता है तथा अपराधों में वृद्धि होती है। उन्हें देख—देखकर छोटी—छोटी आयु के बालक बालिकाओं में भी अनैतिक छोटी—छोटी आयु के बालक बालिकाओं में भी अनैतिक और मानसिक पतन की स्थिति आ जाती है। आज विद्यार्थियों का जीवन जितना अनुशासन विहीन और अमर्यादित हो रहा है, उसका बहुत बड़ा दोष सिनेमा पर ही है। दूषित चलचित्रों को देखकर युवक पाकेटमार, जाल—साज, चोर और शराबी तक बन जाते हैं और इससे भी एक कदम आगे बढ़कर उनका नैतिक पतन भी हो जाता है।  युवक युवतियों में कामुकता की भावनाओं को...

अपना सुधार यानि परिवार का सुधार

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विचार : मगध का एक धनी व्यापारी गृहकलह से अत्यन्त दु:खी होकर बुद्ध बिहार में पहुंचा और भिक्षु समुदाय में उसे भर्ती कर लेने की प्रार्थना की। अधिकारी ने उससे गहरी पूंछतांछ की कि इस प्रकार की विरक्ति अचानक क्यों उठ खड़ी हुई। इससे पूर्व न तो आपका धर्मचक्र प्रवर्तन अभियान से कोई सम्पर्क था और न ही कभी किसी विहार में सत्संग के लिए आये। यहां ज्ञानी वृद्धों की ही दीक्षा दी जाती है, जबकि आपकी इस संस्था के नियम और उद्देश्य तक का ज्ञान नहीं है। व्यापारी का आग्रह कम न हुआ। उसने कहा कि अभी तक मुझे गृहजंजाल से निकालिये। परिवार के सभी सदस्य विद्रोही और व्यसनी हो रहे हैं। कोई किसी का न सम्मान करता है, न सहयोग देता है। आपाधापी मची हुई है और एक दूसरे के प्राणहरण पर उतारू हैं। इन परिस्थितियों में मुझसे तनिक भी ठहरते नहीं बन पड़ा है। यहां आने पर कुछ तो शांति मिलेगी। महाभिक्षु ने व्यापारी से उसका जीवन वृतांत पूछा। उसने अपनी समस्त गतिविधियां कह सुनाई। बताया कि विवाह होने से लेकर वह अब तक कुकर्म ही करता रहा, व्यसनों का आदी रहा, छल कपट से कमाया, जो कमाता उसे व्यसनों में उड़ा देता। सम्पर्क क्षेत्र का एक व्यक्त...

जीवन को भारभूत न बनायें

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विचार :  एक कहावत है कि निश्चिन्त मन, भरी थैली से अच्छी है। वस्तुत: चिन्ता वह अग्नि है जिसमें हंसते—खिलखिलाते जीवन झुलस जाते हैं और बुद्धि कुं​ठित हो जाती है। मनोचिकित्सकों ने आधुनिकतम खोजों के आधार पर मन तथा शरीर पर चिन्ता का दुष्प्रभाव को सिद्ध किया है। उनका कथन है कि चिन्ता एक ऐसी हथौड़ी है, जो मस्तिष्क के सूक्ष्म तंतु जाल को विघटन करके उसकी कार्यक्षमता को नष्ट कर देती है। जिस प्रकार एक ही स्थान पर निरन्तर पानी की बूंदें गिरते रहने से वहां गड्ढा हो जाता है उसी प्रकार मन में किसी बात की निरन्तर चिंता रहने से मस्तिष्क का स्नायु समूह घायल हो जाता है और उसकी कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। एक चिकित्सका का कथन है कि चिन्ता का शरीर पर वही प्रभाव पड़ता है जो एक बंदूक की गोली या तलवार के घाव का। अंतर केवल इतना ही है कि गोली तथा तलवार शीघ्र ही मार डालते हैं परन्तु यह पिशाचिनी धीरे—धीरे करके मारती है। वस्तुत: चिन्ता एक प्रकार का पागलपन ही है। अधिकांश व्यक्ति भूत और भविष्य की चिन्ता में स्वयं को घुला डालते हैं। परन्तु जो बीत गई उसके विषय में सोचना ही क्या। बीता सो बीत ही गया, उस पर पश्चाताप कर...

मुस्कुराहट का सौंदर्य

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विचार : सफल व्यक्ति का समर्थन किया जाता है और असफल को चिढ़ाया जाता है। इस दुनिया का यही कायदा है। सफलता इस बात का प्रमाण मानी जाती है कि व्यक्ति चतुर, क्रियाशील, बुद्धिमान एवं भाग्यवान है। ऐसे का हर कोई साथ देना चाहता है। इसके विपरीत जो पराजित असफल है उसे मूर्ख, अयोग्य एवं भाग्यहीन समझा जाने लगता है। उसकी आलोचना न सही उपेक्षा तो होती ही है। उसे कोई साथी नहीं बनाना चाहता। खिले हुए फूल पर तितली, भौंंरे, मधुमक्खी झुण्ड बनाकर बैठे रहते हैं, लेकिन फूल मुरझाकर झड़ जाता है तो उन प्रशंसकों में से कोई भी उसकी खोज खबर लेने नहीं आता है। आम पर फूल और फल लदने के मौसम में कोयल कूकती है किन्तु जब वह ऋतु चली जाती है तो कूकना भी बन्द हो जाता है। वर्षा में खर—पतवार भी लहलहाने लगते हैं लेकिन ग्रीष्म में हरे—भरे पत्ते भी झुलस जाते हैं। सफलता में सभी हिस्सेदार बनना चाहते हैं, पर असफलता का दौर जब भी आता है तो पल्ला झाड़कर वे भी अलग हो जाते हैं, जो कभी मित्रता का दावा करते थे। सम्पत्ति में भागीदार बनने के लिए कितने ही लालायित रहते हैं किन्तु विपत्ति में हर कोई पल्ला झाड़कर अलग हो जाता है। यह प्रचलन अवांछनीय...