सावन महीने में दो बार पड़ रहा है शनि प्रदोष, शिव भक्तों को मिलेगा उत्तम परिणाम
ज्योतिष : इस बार सावन महीने में शनि प्रदोष का संयोग दो बार होगा। शनि प्रदोष व्रत से सुख, सम्पत्ति, सौभाग्य, धन-धान्य की प्राप्ति होती है। उत्तम संतान सुख की कामना से नियमपूर्वक व्रत किया जाए तो इच्छा पूरी होती है। शनि पीड़ा की शांति के उद्देश्य से किया जाए तो शनि की शांति होती है। कुंडली में बुरे प्रभाव दे रहे शनि की शांति होती है। इस दिन पीपल के वृक्ष में सुबह मीठा दूध अर्पित करने और सायंकाल के समय सरसों के तेल का दीपक लगाने से शनि के दोष दूर होते हैं। शनि प्रदोष के दिन कौड़ियों, नेत्रहीन और भिखारियों को भोजन करवाने से शिव और शनि दोनों प्रसन्न होते हैं। इस दिन शिवजी का अभिषेक काले तिल मिश्रित दूध से करने से पितरों की शांति होती है। शनि प्रदोष के दिन चावल का दान करने से स्वर्ण और चांदी के भंडार भर जाते हैं। कालसर्प दोष की शांति के लिए शनि प्रदोष के दिन शिवजी की जलाधारी पर अष्टधातु का नाग लगवाने से मनवांछित फल मिलता है।
शनि प्रदोष व्रत कथा : किसी समय एक नगर में एक धनी सेठ रहता था। कारोबार से लेकर व्यवहार तक में सेठ का आचरण अच्छा था। वह दयालु प्रवृति का था। धर्म-कर्म के कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेता था। उसकी पत्नी भी उसी की तरह धर्मात्मा थी, लेकिन उस दम्पति की कोई संतान नहीं थी, जिससे वह भीतर ही भीतर बहुत दुखी रहते थे। एक बार इसी दुख से पीड़ित दम्पति ने तीर्थ यात्रा पर जाने का निर्णय लिया। दोनों गांव की सीमा से बाहर निकले ही थे कि मार्ग में एक बहुत बड़े और प्राचीन बरगद के वृक्ष के नीचे एक साधु को समाधि में लीन देखा दोनों के मन में साधु का आशीर्वाद पाने की कामना जाग उठी और साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए। धीरे-धीरे समय ढलता गया। पूरा दिन और पूरी रात गुजर गई पर दोनों यथावत हाथ जोड़े बैठे रहे। प्रात:काल जब साधु समाधि से उठे और आंखें खोली तो दम्पति को देखकर मुस्कुराने लगे और बोले तुम्हारी पीड़ा को मैंने जान लिया है। तुम एक वर्ष तक शनिवार के दिन आने वाली त्रयोदशी का उपवास रखो और शिवजी का पूजन करो, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। तीर्थ यात्रा से लौटने पर सेठ दम्पति ने साधु की बताई विधि अनुसार शनि प्रदोष व्रत करना शुरू किया। जिसके प्रताप से सेठानी की गोद हरी हो गई और समय आने पर सेठानी ने एक सुंदर संतान को जन्म दिया।
शनि प्रदोष व्रत कथा : किसी समय एक नगर में एक धनी सेठ रहता था। कारोबार से लेकर व्यवहार तक में सेठ का आचरण अच्छा था। वह दयालु प्रवृति का था। धर्म-कर्म के कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेता था। उसकी पत्नी भी उसी की तरह धर्मात्मा थी, लेकिन उस दम्पति की कोई संतान नहीं थी, जिससे वह भीतर ही भीतर बहुत दुखी रहते थे। एक बार इसी दुख से पीड़ित दम्पति ने तीर्थ यात्रा पर जाने का निर्णय लिया। दोनों गांव की सीमा से बाहर निकले ही थे कि मार्ग में एक बहुत बड़े और प्राचीन बरगद के वृक्ष के नीचे एक साधु को समाधि में लीन देखा दोनों के मन में साधु का आशीर्वाद पाने की कामना जाग उठी और साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए। धीरे-धीरे समय ढलता गया। पूरा दिन और पूरी रात गुजर गई पर दोनों यथावत हाथ जोड़े बैठे रहे। प्रात:काल जब साधु समाधि से उठे और आंखें खोली तो दम्पति को देखकर मुस्कुराने लगे और बोले तुम्हारी पीड़ा को मैंने जान लिया है। तुम एक वर्ष तक शनिवार के दिन आने वाली त्रयोदशी का उपवास रखो और शिवजी का पूजन करो, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। तीर्थ यात्रा से लौटने पर सेठ दम्पति ने साधु की बताई विधि अनुसार शनि प्रदोष व्रत करना शुरू किया। जिसके प्रताप से सेठानी की गोद हरी हो गई और समय आने पर सेठानी ने एक सुंदर संतान को जन्म दिया।
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