चुनी हुई सरकार को अदालत का आदेश
विचार : देश का संविधान मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन सुना है कि माननीय न्यायालय संसद के बनाये नियमों के अनुसार यानि कि संविधान के दायरे में रहकर अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है, अपितु दूसरी तरफ माननीय न्यायालय चुनी हुई सरकार को निर्देश दे रही है, सेना को निर्देश देने का कार्य माननीय अदालत द्वारा किया जा रहा है। सबसे आश्चर्य वाली बात तो यह है कि न्यायालय उनके निजता की बात कर रही है जो देश में आग लगा रहे हैं, बंदूखें सरेआम लहरा रहे हैं, देश—प्रदेश में उपद्रव मचा रहे हैं। अब भाई अदालत का फैसला है तो स्वीकार तो करना ही होगा। वहीं दलील यह दी जाती है कि प्रदर्शन करना, धरना देना, तोड़फोड़ करना, सरकारी व सार्वजनिक सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाना नागरिक अधिकार है, अरे भाई! कर्तव्यों की भी तो कभी बात कर लिया करो, आखिर नागरिक कर्तव्य भी तो कुछ होता है। नया मामला उत्तर प्रदेश सरकार से जुड़ा है, जहां न्यायालय ने उपद्रवियों के पोस्टर हटाने के निर्देश दिये हैं और उत्तर प्रदेश सरकार इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी है। लेकिन शीर्ष अदालत में भी उत्तर प्रदेश सरकार को राहत नहीं मिली है, बल्कि मामले को बड़ी बेंच में भेज दिया गया है। सवाल उठता है कि चुनी हुई सरकार को कोई कैसे निर्देश दे सकता है। जिस तरह न्यायालय का फैसला सर्वोच्च होता है, क्या उसी तरह सरकार का फैसला सर्वोत्तम नहीं हो सकता। यदि सरकार कुछ गलत करेगा, तो जनता उसको दंड देगी। लेकिन दु:ख है कि जनजागरूकता अभी उतनी नहीं हो पायी जितनी होनी चाहिए। होना तो यही चाहिए कि स्वयं या आसपास से जुड़े मामले स्थानीय स्तर पर ही निपटा लिया जाये। किसी समस्या, किसी मुद्दे पर जनसमूह इकट्ठा होकर सामूहिक फैसले ले सकता है और वह सबको स्वीकार्य होगा, जैसा कि प्राचीन समय में होता रहा है।
उदाहरण के तौर पर मेरे गांव का कोई मामला है तो जितना बेहतर तरीके से गांव वाले मामले को समझेंगे उतने अच्छे से दिल्ली का वकील या और कोई कैसे समझ सकता है। जब ठीक से मामले को समझ ही नहीं सकता या समझाया नहीं जा सकता तो फैसले कैसे सही और उचित लिये जाएंगे। किसी सुदूर क्षेत्र में स्थित किसी गांव के मामले को दिल्ली में बैठकर कैसे निर्णय लिया जा सकता है। क्योंकि जो पीड़ित दिल्ली न्याय मांगने जायेगा, उसके बताने—समझाने में कुछ न कुछ फर्क जरूर हो जाता है, जबकि स्थानीय मामले में ऐसा नहीं होता, सब कुछ देखा—सुना होता है। इसलिये स्थानीय स्तर पर फैसले सही और उचित होते हैं। बहरहाल, यह अलग मुद्दा है। दरअसल, मामला यह है कि देश में छोटी—बड़ी कई राजनीतिक दल हैं। इनमें कई दलों ने अपने दम पर, तो कई राजनीतिक दलों ने गठबंधन आदि तरीके से सरकारें बनाईं। इन राजनीतिक दलों में अधिकतर देश विरोधी बातें सरेआम करते हैं। इन राजनीतिक दलों को समर्थन देने वाले लोग इतनी आपत्तिजनक बातें करते हैं मन तो यही करता है कि बस अब यहीं हो जाये आर—पार। लेकिन संविधान और कानून का ख्याल आते ही मन को रोकना पड़ता है। तो अहम बात यह है कि देश के लिए संविधान बनाये गये हैं या संविधान के लिये देश बनाया गया। कई लोग कहते हैं कि संविधान के अनुसार देश चलेगा, अरे भाई यह कैसे हो सकता है कि आपने जो उलूल—जुलूल नियम बना दें उसे हमें पालन करना ही करना है, तो फिर लोकतंत्र कैसा। अरे मैं तो कहता हूं कि देश के अनुसार संविधान बनना चाहिए। देश में मौजूदा हालत तो यह है कि अपनी ढपली, अपना राग। जितने मत हैं उतनी बातें। एक देश, एक विचार, एकता का एक सूत्र की बात तो कोई करना नहीं चाहता। क्या माननीय न्यायालय को इस बिंदु पर ध्यान नहीं देना चाहिए। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में इतने जुल्म किये जा रहे हैं, इतने विरोध किये गये, इतने अपशब्द कहे गये, जिसकी सीमा नहीं। क्या माननीय अदालत को इन बिंदुओं पर ध्यान नहीं जाता। आखिर देश कितना बर्दाश्त करे, आजादी के बाद भी चैन नहीं। पिस्तौलबाजों, पत्थरबाजों को माननीय न्यायालय कैसे कह सकता है कि यह निजता का हनन है। जबकि टच स्क्रीन वाले उपद्रव का खूब वीडियो बनाये, वीडियो बनाकर देखना निजता का हनन नहीं है और सड़क के किनारे तस्वीरें लगवा दी गईं तो यह निजता का हनन है! वाह रे न्याय।
टिप्पणी : यह अलग बात है कि माननीय न्यायालय अपने कई फैसलों पर समीक्षा कर चुका है।
अभिषेक त्रिपाठी
ई—मेल : abhishekmag@gmail.com
उदाहरण के तौर पर मेरे गांव का कोई मामला है तो जितना बेहतर तरीके से गांव वाले मामले को समझेंगे उतने अच्छे से दिल्ली का वकील या और कोई कैसे समझ सकता है। जब ठीक से मामले को समझ ही नहीं सकता या समझाया नहीं जा सकता तो फैसले कैसे सही और उचित लिये जाएंगे। किसी सुदूर क्षेत्र में स्थित किसी गांव के मामले को दिल्ली में बैठकर कैसे निर्णय लिया जा सकता है। क्योंकि जो पीड़ित दिल्ली न्याय मांगने जायेगा, उसके बताने—समझाने में कुछ न कुछ फर्क जरूर हो जाता है, जबकि स्थानीय मामले में ऐसा नहीं होता, सब कुछ देखा—सुना होता है। इसलिये स्थानीय स्तर पर फैसले सही और उचित होते हैं। बहरहाल, यह अलग मुद्दा है। दरअसल, मामला यह है कि देश में छोटी—बड़ी कई राजनीतिक दल हैं। इनमें कई दलों ने अपने दम पर, तो कई राजनीतिक दलों ने गठबंधन आदि तरीके से सरकारें बनाईं। इन राजनीतिक दलों में अधिकतर देश विरोधी बातें सरेआम करते हैं। इन राजनीतिक दलों को समर्थन देने वाले लोग इतनी आपत्तिजनक बातें करते हैं मन तो यही करता है कि बस अब यहीं हो जाये आर—पार। लेकिन संविधान और कानून का ख्याल आते ही मन को रोकना पड़ता है। तो अहम बात यह है कि देश के लिए संविधान बनाये गये हैं या संविधान के लिये देश बनाया गया। कई लोग कहते हैं कि संविधान के अनुसार देश चलेगा, अरे भाई यह कैसे हो सकता है कि आपने जो उलूल—जुलूल नियम बना दें उसे हमें पालन करना ही करना है, तो फिर लोकतंत्र कैसा। अरे मैं तो कहता हूं कि देश के अनुसार संविधान बनना चाहिए। देश में मौजूदा हालत तो यह है कि अपनी ढपली, अपना राग। जितने मत हैं उतनी बातें। एक देश, एक विचार, एकता का एक सूत्र की बात तो कोई करना नहीं चाहता। क्या माननीय न्यायालय को इस बिंदु पर ध्यान नहीं देना चाहिए। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश में इतने जुल्म किये जा रहे हैं, इतने विरोध किये गये, इतने अपशब्द कहे गये, जिसकी सीमा नहीं। क्या माननीय अदालत को इन बिंदुओं पर ध्यान नहीं जाता। आखिर देश कितना बर्दाश्त करे, आजादी के बाद भी चैन नहीं। पिस्तौलबाजों, पत्थरबाजों को माननीय न्यायालय कैसे कह सकता है कि यह निजता का हनन है। जबकि टच स्क्रीन वाले उपद्रव का खूब वीडियो बनाये, वीडियो बनाकर देखना निजता का हनन नहीं है और सड़क के किनारे तस्वीरें लगवा दी गईं तो यह निजता का हनन है! वाह रे न्याय।
टिप्पणी : यह अलग बात है कि माननीय न्यायालय अपने कई फैसलों पर समीक्षा कर चुका है।
अभिषेक त्रिपाठी
ई—मेल : abhishekmag@gmail.com
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